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अनुसन्धान-६३
राजप्रश्नीयसूत्र का राजा प्रसेनजित् और आचार्य केशी के मध्य हुए संलाप का भाग भी अधिक प्राचीन सिद्ध होता है, क्योंकि बौद्ध परम्परा में पयासीसुत्त में भी यह संवाद उल्लेखित है मात्र नाम का कुछ अन्तर है। बौद्ध परम्परा में भी पयासीसत्त को प्राचीन माना गया है। इस अपेक्षा से राजप्रश्नीय का कुश अंश अतिप्राचीन है, किन्तु राजप्रश्नीय के सूर्याभदेव से सम्बन्धित भाग में जिनप्रसाद का जो स्वरूप वर्णित है तथा नाट्यविधि आदि सम्बन्धी जो उल्लेख हैं, वे विद्वानों की दृष्टि में ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी से पूर्ववर्ती नहीं हो सकते हैं, क्योंकि उसमें जिनप्रासाद के जिस शिल्प का विवेचन किया है, पुरातात्त्विक दृष्टि से वह शिल्प पूर्वगुप्तकाल या गुप्तकाल में ही पाया जाता हैं । इसी प्रकार औपपातिकसूत्र में जो विभिन्न प्रकार के तापसों एवं परिव्राजकों आदि का जो उल्लेख मिलता है, वह महावीर के समकालीन ही हैं, किन्तु उसमें भी परिव्राजकों की कुछ शाखाएँ परवर्तीकालीन भी हैं। इसी प्रकार चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति में ज्योतिष-ग्रहों की गति सम्बन्धी जिस पद्धति का विवेचन किया गया है वह आर्यभट्ट और वराहमिहिर से बहुत प्राचीन है । उसकी निकटता वेदकालीन ज्योतिष से अधिक हैं । पुनः उसमें नक्षत्रभोजन आदि को लेकर जो मान्यताएँ प्रस्तुत की गई हैं, उनका भी जैन धर्म के गुप्तकालीन विकसित स्वरूप से विरोध आता है । वे मान्यताएँ भी प्राचीन स्तर के आगमों की मान्यताओं के अधिक निकट हैं । अतः सूर्यप्रज्ञप्ति
और चन्द्रप्रज्ञप्ति का काल निश्चित ही प्राचीन है। आचार्य भद्रबाह (आर्य भद्रबाहु) ने जिन दस नियुक्तियों की रचना करने का निश्चय प्रकट किया है, उसमें सूर्यप्रज्ञप्ति की नियुक्ति भी है।
मेरी दृष्टि में नियुक्तियों का रचनाकाल ईसा की दूसरी शताब्दी से परवर्ती नहीं है, अतः सूर्यप्रज्ञप्ति का अस्तित्व उससे तो प्राचीन ही सिद्ध होता है । इसी क्रम में जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति को भी बहुत अधिक परवर्तीकालीन नहीं माना जा सकता है । इसी क्रम में निरयावलिका के अन्तर्भूत पाँच ग्रन्थों का रचनाकाल भी ईसा पूर्व की दूसरी-तीसरी शताब्दी से परवर्ती नहीं है। इस प्रकार उपाङ्ग साहित्य में उल्लेखित कोई भी ग्रन्थ ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दी से परवर्ती सिद्ध नही होता है। उपाङ्ग साहित्य में प्रज्ञापना जैसे गभीर
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