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________________ १५२ अनुसन्धान-६३ उल्लेख है । औपपतिकसूत्र की विषयवस्तु की विशेषता यही है, कि उसमें श्रमणों एवं तापसों के द्वारा किये जाने वाले उन विभिन्न तपों एवं साधनाओं का विस्तार से उल्लेख हुआ है, जिनमें से कुछ साधनाएँ, तपविधियाँ और भिक्षाविधियाँ निर्ग्रन्थपरम्परा में भी प्रचलित रही हैं । औपपातिकसूत्र के अन्त में सिद्धशिला के विवेचन सम्बन्धी जो गाथाएँ मिलती हैं, वे उत्तराध्ययनसूत्र और अनुयोगद्वारसूत्र में भी उपलब्ध होती है, किन्तु उत्तराध्ययनसूत्र की अपेक्षा औपपातिकसूत्र में सिद्धशिला आदि का जो विस्तृत विवरण है, उससे यही सिद्ध होता है कि उत्तराध्ययन की अपेक्षा औपपातिकसूत्र परवर्तीकालीन है। __उपाङ्गसूत्रों का दूसरा मुख्य ग्रन्थ राजप्रश्नीयसूत्र है । इस ग्रन्थ में सर्वप्रथम राजा प्रसेनजित् और पार्श्वसन्तानीय केशीश्रमण का आत्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध में विस्तृत संवाद हैं। उसके पश्चात् प्रसेनजित् के द्वारा संलेखनापूर्वक देहत्याग करके सूर्याभदेव के रूप में उत्पन्न होने का उल्लेख मिलता है । फिर सूर्याभदेव के द्वारा भगवान महावीर के समक्ष विविध नाट्यादि प्रस्तुत करने का उल्लेख है । इसी प्रसंग में जिनप्रासाद के स्वरूप का एवं उसके द्वारा की गई जिनपूजा की विधि का भी विवेचन किया गया है । अन्त में जैसा हमने पूर्व में उल्लेख किया सूर्याभदेव द्वारा स्वर्ग की आयु पूर्ण करने के पश्चात् दृढ़प्रतिज्ञ के नाम से महाविदेह में उत्पन्न होकर मोक्ष प्राप्त करने का उल्लेख है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि औपपातिकसूत्र और राजप्रश्नीयसूत्र दोनों में दृढ़प्रतिज्ञ के प्रसंग में गृहस्थ जीवन सम्बन्धी लगभग सभी संस्कारों का उल्लेख भी पाया जाता है । वैदिक परम्परा में मान्य षोडशसंस्कारो में से लगभग पन्द्रह संस्कारों का उल्लेख इसमें उपलब्ध हो जाता है । वस्तुतः श्वेताम्बर परम्परा में, वैदिक परम्परा में मान्य गृहस्थों के संस्कारों का उल्लेख करने वाले ये दोनों उपाङ्ग इस दृष्टि से अतिमहत्त्वपूर्ण है। इस प्रकार उपाङ्ग साहित्य में प्रथम दो उपाङ्ग राजा प्रसेनजित् और अम्बड परिव्राजक के जीवन की कथाओं को प्रस्तुत करते हैं। इनके पश्चात् जीवाजीवाभिगम और प्रज्ञापना - ये दो उपाङ्ग मूलत: जैन धर्म की दार्शनिक मान्यताओं से सम्बन्धित हैं, जहाँ जीवाजीवाभिगम में जीव और अजीव तत्त्व के भेद-प्रभेदों की विस्तृत चर्चा है, वहाँ प्रज्ञापनासूत्र छत्तीस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520564
Book TitleAnusandhan 2014 03 SrNo 63
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2014
Total Pages198
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size14 MB
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