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वर्ग के ही कल्पिका आदि पाँच ग्रन्थों के लिए मिलता है । उसमें कल्पावंतसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका और वृष्णिदशा में उपाङ्ग ( उवंग) शब्द का प्रयोग हुआ है । नवें उपाङ्ग कल्पावंतसिका के प्रारम्भ में " उवंगाणं पढमस्स वग्गस्स” ऐसा स्पष्ट उल्लेख है । इस आधार पर यह माना जा सकता है कि सर्वप्रथम उपाङ्गवर्ग के अन्तिम पाँच ग्रन्थों, जिनका सम्मिलित नाम निरयावलिका है, को उपाङ्ग नाम से अभिहित किया जाता रहा होगा । नन्दीसूत्र के रचनाकाल (पाँचवी शती) तक कल्पिका से लेकर वृष्णिदशा तक के इन पाँच ग्रन्थों को उपाङ्ग संज्ञा प्राप्त थी । यदि हम यह माने कि आगमों की अन्तिम वाचना वीरनिर्वाण के ९८० वर्ष पश्चात् लगभग विक्रम की ५वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुई, तो हमे इतना तो स्वीकार करना पड़ेगा कि उपाङ्गवर्ग के निरयावलिका के अर्न्तभूत कल्पिका से लेकर वृष्णिदशा तक के पाँच ग्रन्थों को विक्रम की ५वीं शताब्दी में उपाङ्ग संज्ञा प्राप्त थी । चाहे बारह उपाङ्गों की अवधारणा परवर्तीकालीन हो, किन्तु वीरनिर्वाण संवत् ९८० या ९९३ में वल्लभीवाचना के समय निरयावलिका के पाँचो वर्गों को उपाङ्ग नाम से अभिहित किया जाता था । सम्भवतः पहले निरयावलिका श्रुतस्कन्ध के कल्पिका, कल्पावंतसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका और वृष्णिदशा को उपाङ्ग कहा जाता था, किन्तु जब बारह अङ्गों के आधार पर उनके बारह उपाङ्गो की कल्पना की गई, तब निरयावलिका के इन पांच वर्गो को पांच स्वतन्त्र ग्रन्थ मानकर और उसमें निम्न सात ग्रन्थों यथा १. औपपातिक, २. राजप्रश्नीयसूत्र, ३ जीवजीवाभिगम, ४. प्रज्ञापनासूत्र, ५ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ६. चन्द्रप्रज्ञप्ति और ७. सूर्यप्रज्ञप्ति को जोड़कर बारह अङ्गो के बारह उपाङ्गों की कल्पना की गई और इस आधार पर यह माना गया कि क्रमशः प्रत्येक अङ्ग का एक-एक उपाङ्ग है । जैसे आचाराङ्ग का उपाङ्ग औपपातिकसूत्र है, सूत्रकृताङ्ग का उपाङ्ग राजप्रश्नीय है, स्थानाङ्ग का उपाङ्ग जीवजीवाभिगम है, समवायाङ्ग का उपाङ्ग प्रज्ञापना है, भगवती का उपाङ्ग चन्द्रप्रज्ञप्ति है, इसी प्रकार आगे ज्ञाताधर्मकथा का उपाङ्ग जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति है और उपासकदशा का उपाङ्ग सूर्यप्रज्ञप्ति है । अन्तकृद्दशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरणदशा, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद के उपाङ्ग निरयावलिका के पांच वर्ग है । द्वीपसागरप्रज्ञप्ति का भी उल्लेख मिलता है, किन्तु वर्तमान में यह ग्रन्थ
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