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________________ १४६ अनुसन्धान-६३ उपाङ्गसाहित्य : एक विश्लेषणात्मक विवेचन प्रो. सागरमल जैन उपाङ्ग साहित्य का सामान्य स्वरूप : जैन आगम साहित्य के वर्गीकरण की प्राचीन पद्धति के अनुसार आगमों को मुख्यतः दो भागों में विभक्त किया जाता है - १. अङ्गप्रविष्ट और २. अङ्गबाह्य. ___ जहाँ प्राचीनकाल में अङ्गबाह्यों का वर्गीकरण आवश्यक और आवश्यकव्यतिरिक्त इन दो भागों में किया जाता था और आवश्यकव्यतिरिक्त को पुनः कालिक और उत्कालिक रूप में वर्गीकृत किया जाता था, जबकि वर्तमान काल में अङ्गबाह्य ग्रन्थों को – १. उपाङ्ग २. छेदसूत्र ३. मूलसूत्र ४. प्रकीर्णकसूत्र और ५. चूलिकासूत्र – ऐसे पाँच भागों में विभक्त किया जाता है । वर्तमान में उपाङ्ग वर्ग के अन्तर्गत निम्न बारह आगम माने जाते हैं : १. औपपातिकसूत्र, २. राजप्रश्नीयसूत्र, ३. जीवाजीवाभिगमसूत्र, ४. प्रज्ञापनासूत्र, ५. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ६. चन्द्रप्रज्ञप्ति, ७. सूर्यप्रज्ञप्ति, ८. कल्पिका, ९. कल्पावंतसिका, १०. पुष्पिका, ११. पुष्पचूलिका और १२. वृष्णिदशा. ज्ञातव्य है कि इन बारह उपाङ्गों में अन्तिम पाँच कल्पिका से लेकर वृष्णिदशा तक का संयुक्त नाम निरयावलिका भी मिलता है । आगमों के वर्गीकरण की जो प्राचीन शैली है, वह हमें नन्दीसूत्र में उपलब्ध होती है, जबकि आगमों के वर्तमान वर्गीकरण की जो शैली है, वह लगभग १४वीं शताब्दी के बाद की हैं । वर्तमान में अङ्गबाह्यों के जो पाँच वर्ग बताए गए हैं, इन वर्गों के नाम के उल्लेख तो जिनप्रभ के विधिमार्गप्रपा में नहीं हैं, किन्तु उसमें प्रत्येक वर्ग के आगमों के नाम एक साथ पाए जाने से यह अनुमान किया जा सकता है कि उपाङ्ग, छेद, मूल, प्रकीर्णक, चूलिका आदि के रूप में नवीन वर्गीकरण की यह शैली लगभग १४वीं शताब्दी में अस्तित्व में आई होगी। जहाँ तक उपाङ्ग शब्द के प्रयोग का प्रश्न है, वह सर्वप्रथम हमें उपाङ्ग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520564
Book TitleAnusandhan 2014 03 SrNo 63
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2014
Total Pages198
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size14 MB
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