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जान्युआरी - २०१४
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जैन चित्रशैली का पृथक् अस्तित्व* .
विजयशीलचन्द्रसूरि आधुनिक पश्चिम भारत-प्रदेश में से मिली हुई, ई. ११ वें शतक से लेकर १६वें शतक पर्यन्त की, ताडपत्रीय एवं कागज की सचित्र हस्तप्रतियाँ, वस्त्रपटों एवं काष्ठपट्टिकाओं में उपलब्ध चित्रकला के नामविधान के विषय में हमारे चित्रकला-मर्मज्ञों में भारी मतभेद रहा है। कतिपय विद्वान उस कला को 'पश्चिम भारतीय चित्रशैली' कहते हैं; कितने विद्वान उसको 'पश्चिम भारतीय जैन शैली' कहते हैं; किसी विद्वान ने उसको 'गूजरात की जैनाश्रित चित्रकला' ऐसा नाम भी दिया है, तो कभी कभी उसको 'मारुगुर्जर शैली' के नाम से भी पहचाना गया है। किन्तु इस चित्रशैली के बारे में आजतक विद्वानों में सर्वसम्मति व एकवाक्यता नहीं सध पाई है।
हमारे अभिप्राय से प्रस्तुत चित्रशैली को 'जैन शैली' या 'जैन चित्रशैली' नाम देना अधिक युक्तियुक्त व उचित लगता है। ऊपर बताये गये नामों में से किसी एकको पसंद न करके 'जैन शैली' ऐसा नाम बताने में कोई साम्प्रदायिक आग्रह नहीं है । बात यह है कि मध्यकालीन जैन चित्रकला के मुख्य आधार/ स्रोत जैन धर्माचार्य है । वे भारत के, पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण-चारों दिशाओं के, विभिन्न प्रदेशों में सदैव पदयात्रा करते रहते, और अपनी इस पदयात्रा के दौरान, उन्हें जब कभी, कोई कल्पसूत्र व अन्यान्य ग्रन्थों लिखवाने की व चित्रांकित कराने की जरूर पडती, तब वे जहां - जिस प्रदेश में, जिस गांव या नगर में - विचरते, वहां के प्रसिद्ध लेखक व चित्रकार को बुलाते, अथवा अन्य किसी भी प्रदेश या गांव के अपने परिचित लेखक व. चित्रकार को भी बुलवाते,
और उसको अपने अनुकूल लेखनकार्य व चित्रकार्य के लिये सम्पूर्ण मार्गदर्शन कराते । बाद में वह लेखक एवं चित्रकार, तदनुरूप लेखन व चित्रांकन का कार्य सम्पन्न करता।
यह एक परम्परा - ट्रेडिशन है, जो आज भी प्रचलित है। इससे हुआ यह
* ओरिएन्टल कोन्फरन्स - अमदावाद, ई.स. १९८८ में प्रस्तुत शोधपत्र का सारांश
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