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जान्युआरी - २०१४
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शब्दोनो साक्षात् मांस-मत्स्यपरक अर्थ करीने तेनुं ग्रहण-भक्षण करवानुं विधान करवू शक्य ज नथी. आनी सामे आधुनिक विद्वानो आ पाठोथी 'जैन श्रमणश्रमणीओ मांसाहार करता हता' अQ सिद्ध थाय छे तेवो अकान्त सेवे छे. ___हर्मन जेकोबीओ आ शोधपत्रो प्रकाशित कर्या ते वि.सं. १९५४-५५ना अरसामा बन्ने पक्षो तरफथी सामसामां घणां चर्चापत्रो अने निवेदनो छपायां हतां. तो बन्ने पक्षो वच्चे परस्पर पत्रव्यवहार पण घणो थयो हतो. तेमांथी हर्मन जेकोबी पर लखायेला बे पत्रो १. पं. गम्भीरविजयजीनो २. मुनिश्री नेमिविजयजी अने आनन्दसागरजीओ लखेलो ‘परीहार्यमीमांसा' पत्र ३. परीहार्यमीमांसानो हर्मन जेकोबीओ आपेलो जवाब अने ४. तेनो उपरोक्त बे मुनिवरोओ आपेलो प्रत्युत्तर - आ ४ वस्तुओ अनुसन्धान-४१मां छपाई हती. तेना अनुसन्धानमां ज पं. गम्भीरविजयजीओ वि.सं. १९५६मां हर्मन जेकोबीना प्रत्युत्तरात्मक पत्रना प्रत्युत्तररूपे लखेलो पत्र अत्रे प्रकाशित थई रह्यो छे. ___मतभेद के विरोध दर्शावतो पत्र होवा छतां, अमां प्रयोजायेली सौम्य भाषा, हर्मन जेकोबीने मानपूर्वक करेलां सम्बोधनो, पोताना परम प्रीतिपात्र अवा नेमिविजयजी- पण अर्थघटन अयोग्य जणायुं त्यां तेने 'प्रामादिक' जणाववा सुधीनी दाखवेली तटस्थता, शास्त्रवचनोनो परमार्थ जाणवानी शक्ति - आ बधुं आपणने पं. श्रीगम्भीरविजयजी प्रत्ये बहुमान जगाडे तेम छे.
'श्रमणो मांसभक्षण करता हता' अवो आधुनिक विद्वानोनो एकान्त आग्रह अने 'मांस-मत्स्य, ग्रहण साधुजीवनमा सम्भवित नथी ज' अवी दृढ जैन परम्परा वच्चे तटस्थ रहीने पं. श्रीगम्भीरविजयजी जे स्पष्ट निराकरण आप्यु छे तें सर्वथा स्वीकार्य बने तेम छे. तेओए श्रीशीलाङ्काचार्य-विरचित श्रीआचाराङ्गसूत्रनी वृत्तिना आधारे अर्बु समाधान सूचव्युं छे के प्रस्तुत पाठमां आवता 'मांस-मत्स्य' व. शब्दो पोताना स्वाभाविक अर्थमां ज छे, ते शब्दोनो खेंचताण करीने वनस्पतिपरक अर्थ करवानी जरूर नथी. तेथी आ पाठोना आधारे जैन श्रमण-श्रमणीओ मांस-मत्स्यनुं ग्रहण करी शके ओम सिद्ध थाय ज छे. पण ओ ग्रहण कंई आधुनिक विद्वानो कहे छे तेम आहारार्थे नथी होतुं. केम के मे पदार्थोनुं भक्षण निषिद्ध छे. पण 'लूता' (-ओक जातनो भयङ्कर त्वचानो रोग) जेवी महा आपत्तिओमां ज्यारे बीजो कोई ज उपाय न बचे अने
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