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अनुसन्धान-६३
पं. श्रीगम्भीरविजयजीओ आपेलो हर्मन जेकोबीना पत्रनो उत्तर
- सं. मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय श्रीआचाराङ्गसूत्रना द्वितीय श्रुतस्कन्धना पिण्डैषणा अध्ययनना दसमा उद्देशामां "से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सिया णं परो बहुअट्ठिएणं मंसेण वा मच्छेण वा उवनिमंतिज्जा...." ओ प्रमाणेनो सूत्रपाठ छे. आ सूत्रनो फक्त शब्दार्थ जोवा जईओ तो साधु-साध्वी प्राचीनकाले मांस-मत्स्य, पण भिक्षामां ग्रहण करता हता अवं फलित थई शके. आ शब्दार्थने पकडीने ज डो. हर्मन जेकोबीओ श्रीआचाराङ्गसूत्रना सम्पादन दरम्यान 'जैन ग्रन्थोमां पण मांसाहारनुं विधान छे' एवा मतलबना शोधपत्रो प्रकाशित कर्या. अलबत्त, आम करवामां जैनोनी लागणी दूभववानो तेमनो आशय नहोतो ज, संशोधनवृत्ति ज मुख्य हती; पण "अहिंसा परमो धर्मः"नुं सूत्र गळथूथीमां पीनारा जैनोनी लागणी साथे जोडायेलो आ जेटलो नाजुक मुद्दो हतो के स्वाभाविक रीते जैनसमाज आने लीधे खळभळी ऊठ्यो हतो. .
ओक वात नक्की छे के श्रीआचाराङ्ग, श्रीव्याख्याप्रज्ञप्ति व. सूत्रोमां आवा पाठो आवे छे तेनाथी जैन श्रमणवर्ग कई अजाण न हतो. आ पाठो जैनधर्मनी विभावना साथे आपाततः सुसङ्गत नथी ओ तेमना लक्ष्यमा हतुं ज. अने छतांय आ पाठो तेओए अत्यार सुधी जाळवी राख्या, अनेकशः थयेली वाचनाओ वखते ते पाठोनी कमी करवी शक्य होवा छतां तेम न कर्य, ओ तेओनी तटस्थता अने प्रामाणिकतानो निःशङ्क पुरावो छे. छतां पण जो आपणे पाश्चात्त्य के आधुनिक विद्वानोने सत्यना पक्षपाती गणीओ अने जैन श्रमणोने साम्प्रदायिक मानस धरावता चीतरीओ तो तेमां आपणी ज तटस्थता जोखमाय छे.
जैन परम्परा सैकाओथी आवा पाठोमां आवता 'मांस' अने 'मत्स्य' शब्दोनो अर्थ गुरुगमथी अनुक्रमे 'फलनो गर' अने 'वनस्पतिविशेष' करती आवी छे. आम करवामां तेने कोशो अने वैद्यकशास्त्रोनो टेको तो छ ज, पण ओनी साथे ने साथे जैन ग्रन्थोमां ज मांस-मत्स्यना ग्रहणनो साक्षात् के परोक्ष रीते निषेध करता अटला बधा पाठो छे के उपरोक्त पाठोमां 'मांस-मत्स्य'
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