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अनुसन्धान-६३
→ रत्नशेखर → हेमविमल → शुभविमल → अमरविजय → कमलविजय → हेमविजय, गुरुभाई विद्याविजय → गुणविजय*
आ कवि विक्रमीय सत्तरमी शताब्दीना अनेक महान कविओमांना अक हता. साधारण रीते हीरविजयसूरिनी शिष्यपरम्पराना अने ते वखतना समकालीन साधुओ मोटे भागे विद्वान अने कविओ हता अम तेमनी प्राप्त थती रचनाओ उपरथी मालूम पडे छे. संस्कृत भाषा करतां सोळ, सत्तर अने अढारमी सदीमां गूजराती भाषा साहित्य जैन कविओना हाथे वधारे फूल्युफाल्युं छे अम कोई पण साहित्यशोधकने लाग्या विना नथी रहेतुं.
आ कविना कवित्व माटे गृहस्थ कवि ऋषभदास पण पोताना कुमारपाळ रास अने हीरविजयसूरि-रासमां मोटा कवि तरीकेनो मानभर्यो उल्लेख करे छे.
हंसराज वाछो देपाल माल हेमनी बुद्धि विशाळ. – कुमारपाळरास हेमविजय पण्डित वाचाल काव्यदुहामां बुद्धि विशाळ
- हीरविजयसूरिरास पृ. १०८
* वास्तवमा विजयप्रशस्तिमहाकाव्यनी प्रशस्ति प्रमाणे 'लक्ष्मीभद्र' मुनिसुन्दरसूरिजीना राज्यमां थया हता, तेमनी परम्परामां न हता. रत्नशेखरसूरिजीओ रचेली अर्थदीपिका (अपरनाम - श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रवृत्ति, र.सं. १४९६)नुं लक्ष्मीभद्रे संशोधन कर्यु हतुं, अने हेमविमलसूरिजीना राज्यमां लक्ष्मीभद्रनी परम्पराना 'शुभविमल' थया; अटलो ज उपरोक्त प्रशस्तिमां निर्देश छे. ते सिवाय ओ बे सरिभगवन्तोनो अम्बालालभाईओ जणाव्यो तेवो लक्ष्मीभद्रनी परम्परा साथे कोई सम्बन्ध नथी. जैन परम्परानो इतिहास-भाग-३, पृ. १९८-१९९ पर लक्ष्मीभद्रीय परम्परा सम्बन्धे घणी हकीकतो दर्शावाई छे. पण अन्य सन्दर्भो साथे ओ हकीकतोने सरखावता घणीखरी शङ्कास्पद जणाय छे. जेमके तेमां लक्ष्मीभद्रने मुनिसुन्दरसूरिजीना शिष्य, रत्नशेखरसूरिजी (दीक्षा सं. १४६३)ना विद्यागुरु, अने हेमविमलसूरिजीना काळमां विद्यमान जणाव्या छे. आ हिसाबे तेमनो दीक्षापर्याय लगभग १०० वर्ष करतां पण वधु थवा जाय छे. ते भाग्ये ज संभवे. वळी, रत्नशेखरसूरिजी अने हेमविमलसूरिजी लक्ष्मीभद्रीय परम्परामां थया छे एवी त्यां सूचवेली हकीकत पण आ प्रशस्तिना आधारे खोटी ठरे छे.
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