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सेवक नमि-विनमि की सेवाभक्ति और प्रभु का वर्षांतप
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वन्दनार्थ धरणेन्द्र आए । उन्होंने उन दोनों से पूछा- तुम्हारे यहाँ आने का क्या प्रयोजन है ? उत्तर में उन्होंने कहा-'यह हमारे स्वामी हैं । हम इनके सेवक हैं । जब ये राजा थे तो हमें इन्होंने किसी कार्यवश बाहर भेजा था। पीछे से इन्होंने अपने सभी पुत्रों को राज्य बाँट दिया। हम वापिस लौट कर आए, तब तक तो यह मुनि बन गये । अब हमें यह साफ दिखाई देता है कि इन्होंने सर्वस्व त्याग दिया है तो हमें राज्य कहाँ से दे देगें ? "इनके पास अब कुछ भी है या नही ?" इसकी हमे जरा भी चिन्ता नहीं है। सेवक को तो हमेशा स्वामी की सेवा करनी होती है। इसलिए हम इनकी सेवा में तैनात हैं।' धरणेन्द्र ने कहा-"यह स्वामी तो ममता-रहित और अपरिग्रही हैं। अच्छा होता, आप भरतजी के पास जा कर राज्य की मांग करते । यह साधु आपको क्या दे सकेगे ?" इस पर उन्होने जवाब दिया-"विश्व के स्वामी प्रभ के मिल जाने पर अब हम दूसरे किसी को भी अपना स्वामी नहीं बनाना चाहते । कल्पवृक्ष मिल जाने पर करीर (कर) वृक्ष का आश्रय कौन लेना चाहेगा ? परमेश्वर को छोड़ कर हम दूसरे किसी के पास मांगने नहीं जाते । चातक वर्षाकण को छोड़ कर दूमर के पास जल की याचना नहीं करता। अस्तु, भरतादि का कल्याण हो ! आप हमारी चिन्ता न करें। इन्हीं स्वामी से हम जो कुछ मिलना होगा, वह मिल जाएगा । हमें दूसरे से क्या लेना-देना है ?" उनका नि.स्पृहतापूर्ण प्रत्युत्तर सुन कर धरणेन्द्र विस्मित और प्रसन्न हो कर बोले--"मैं भी इन्हीं स्वामी का सेवक पातालपति धरणेन्द्र है । अ.प दोनों की यह प्रतिज्ञा बहुत उत्तम है। आपको इन्ही स्वामी की सेवा करनी चाहिए । लो, मैं आप दोनों की स्वामिभक्ति से प्रसन्न होकर स्वामिसेवा के फल के रूप में विद्याधरों का ऐश्वर्य प्रदान करता हूं। ऐसा ही समझना कि यह आपको स्वामी की सेवा से ही मिला है । ऐसा मत सोचना कि यह और किसी से मिला है।" यों दोनों को समझा कर धरणन्द्र ने उन्हें प्रज्ञप्ति आदि विद्याए सिखाई । इससे वे दोनों प्रसन्न हो कर स्वामी की आज्ञा ले कर पचास योजन विस्तृत एवं पच्चीस योजन ऊँचे वैताढ्य पर्वत पर आए; जहाँ नमिकुमार ने उक्त विद्याबल से दक्षिणश्रेणि के मध्य भूभाग में दस-दस योजन विस्तृत ५० नगर बसाये । इसी तरह विद्याधरपति विनमिकुमार ने उत्तरणि में दस-दस योजन विस्तृत ६० नगरियां बसाई । वहाँ चिरकाल तक वे दोनों विद्याधरों के राजा चक्रवर्ती बन कर सुम्बपूर्वक राज्य करते रहे । सच है-'स्वामिसेवा निष्फल नहीं जाती।'
ऋषभदेव भगवान को मौन एवं निराहार रहते हुए एक वर्ष होगया था। वे कल्पनीय आहार की शोध में विचरण करते-करते पारणे की इच्छा से हस्तिनापुर पधारे। उस समय सोमयश के पुत्र श्रेयांसकुमार ने स्वप्न देखा कि "मैंने काले बने हुए मेरुपर्वत को अमृतकलशों से प्रक्षलित कर उज्ज्वल बनाया ।" सुबुद्धि नामक सेठ ने भी स्वप्न देखा कि 'सूर्य से गिरी हुई हजारों किरणें श्रेयांसकुमार ने अपने यहाँ पुनः स्थापित की, जिससे वह सूर्य पुनः तेजस्वी हो उठा।' सोमयश राजा ने भी स्वप्न देखा कि 'एक राजा बहुत से शत्रुओं से घिरा हुआ था, परन्तु श्रेयांस की सहायता से उसकी जीत हुई।' तीनों ने अपना-अपना स्वप्न राजसभा में एक दूसरे के सामने निवेदन किया। परन्तु उन्हें अपने-अपने स्वप्न के फल का ज्ञान न होने से वे अपने अपने स्थान पर लौट आए। उसी समय उस स्वप्न-फल का प्रत्यक्ष निर्णय देने के लिए ही मानो भगवान् श्रेयांस के यहां भिक्षार्थ पधारे । चन्द्रमा को देख कर जैसे समुद्र उछलने लगता है, वैसे ही भगवान् को देख कर कल्याणभाजन श्रेयांस हर्ष से नाच उठा । श्रेयांसकुमार ने स्वामी के दर्शन पाते ही मन में ऊहापोह किया, इससे उसे पहले के खोए हुए निधान के समान जातिस्मरणज्ञान पैदा हुआ। पूर्वजन्म की वे सब बातें चलचित्र की तरह उसके सामने आने लगी कि पूर्वजन्म