________________ १२-स्थितिबन्ध, ३-अनुभागबन्ध और ४-प्रदेशबन्ध ये चार भेद हैं। सामान्यतया इसी को ही द्रव्यकर्म कहते हैं और इसके-द्रव्यकर्म के आठ भेद होते हैं। ये आठों ही आत्मा की मुख्यमुख्य आठ शक्तियों को या तो विकृत कर देते हैं या आवृत करते हैं। ये आठ भेद-१ज्ञानावरणीय, २-दर्शनावरणीय, ३-वेदनीय, ४-मोहनीय, ५-आयु, ६-नाम, ७-गोत्र और ८-अन्तराय, इन नामों से प्रसिद्ध हैं। ये द्रव्यरूप कर्म के मूल आठ भेद हैं और इन्हीं नामों से इन का जैनशास्त्रों में विधान किया गया है। इन की अर्थविचारणा इस प्रकार है १-ज्ञानावरणीय-२जिस के द्वारा पदार्थों का स्वरूप जाना जाए उस का नाम ज्ञान है। जो कर्म ज्ञान का आवरण-आच्छादन करने वाला हो, उसे ज्ञानावरणीय कहते हैं। तात्पर्य यह है कि जैसे सूर्य को बादल आवृत्त कर लेता है, अथवा जैसे नेत्रों के प्रकाश को वस्त्रादि पदार्थ आच्छादित कर देते हैं, उसी प्रकार जिन कर्माणुओं या कर्मवर्गणाओं के द्वारा इस जीवात्मा का ज्ञान आवृत (ढका हुआ) हो रहा है, उन कर्माणुओं या कर्मवर्गणाओं का नाम ज्ञानावरणीय 1. स्वभावः प्रकृतिः प्रोक्तः, स्थितिः कालावधारणम्। अनुभागो रसो ज्ञेयः, प्रदेशो दलसंचयः॥१॥ अर्थात् स्वभाव का नाम प्रकृति है, समय के अवधारण-इयत्ता को स्थिति कहते हैं, रस का नाम अनुभाग है और दलसंचय को प्रदेश कहते हैं। प्रकृतिबन्ध आदि पदों का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह निनोक्त है (क)-प्रकृतिबन्ध-जीव के द्वारा ग्रहण किए हुए कर्मपुद्गलों में भिन्न भिन्न स्वभावों अर्थात् शक्तियों का उत्पन्न होना प्रकृतिबन्ध हैं। ___ (ख)-स्थितिबन्ध-जीव के द्वारा गृहीत कर्मपुद्गलों में अमुक काल तक अपने स्वभावों का त्याग न कर जीव के साथ लगे रहने की कालमर्यादा को स्थितिबन्ध कहते हैं। (ग)-अनुभाग (रस) बन्ध-जीव के द्वारा ग्रहण किए हुए कर्मपुद्गलों में रस के तरतम-भाव का अर्थात् फल देने की न्यूनाधिक शक्ति का उत्पन्न होना रसबन्ध कहलाता है। (घ)-प्रदेशबन्ध-जीव के साथ न्यूनाधिक परमाणुओं वाले कर्मस्कन्धों का सम्बन्ध होना प्रदेशबन्ध कहलाता है। अथवा-प्रकृतिबन्ध आदि पदों की व्याख्या निम्न प्रकार से भी की जा सकती है (क)-कर्मपुद्गलों में जो ज्ञान को आवरण करने, दर्शन को रोकने और सुख-दुःख देने आदि का स्वभाव बनता है वही स्वभावनिर्माण प्रकृतिबन्ध है। (ख)-स्वभाव बनने के साथ ही उस स्वभाव से अमुक समय तक च्युत न होने की मर्यादा भी पुद्गलों में निर्मित होती है, यह कालमर्यादा का निर्माण ही स्थितिबन्ध है। (ग)-स्वभावनिर्माण के साथ ही उस में तीव्रता, मन्दता आदि रूप में फलानुभव करने वाली विशेषताएं बंधती हैं, ऐसी विशेषता ही अनुभागबन्ध है। (घ)-ग्रहण किए जाने पर भिन्न भिन्न स्वभावों में परिणत होने वाली कर्मपुद्गलराशि स्वभावानुसार अमुक-अमुक परिमाण में बंट जाती है, यह परिमाणविभाग ही प्रदेशबन्ध कहलाता है। 2. नाणस्सावरणिजं, दंसणावरणं तहा। वेयणिजंतहा मोहं, आउकम्मं तहेव य // 2 // नामकम्मं च गोयं च, अन्तरायं तहेव य। एवमेयाई कम्माइं, अद्रुवु उसमासओ // 3 // (उत्तराध्ययनसूत्र, अ० 33) 34 ] श्री विपाक सूत्रम् .. [प्राक्कथन