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टीका-प्रस्तुत गाथा में इस बात को प्रकाशित किया गया है कि-जब मुनि विहार करे, तब अपना सर्व भांडोपकरण साथ लेकर जाए और जो आहार कहीं से लिया है, उसको वह आधे योजन तक साथ ले जा सकता है, आगे नहीं। ___कोई भी मुनि जब आहार के लिए जाए, तब उसे आहार लेने से पूर्व अपने पात्रों की भली प्रकार से प्रतिलेखना कर लेनी चाहिए।
यहां पर इतना स्मरण रहे कि जब जिनकल्पी मुनि आहार-पानी को जाता है, तब तो वह अपने सर्व भांडोपकरण साथ ही लेकर जाता है और यदि स्थविरकल्पी आहार के लिए जाए, तब वह अपनी उपाधि को अन्य मुनि को जतला कर जाता है, ताकि वर्षादि हो जाने पर वह उनकी रक्षा कर सके। यदि विहार करना हो तब जिनकल्पी वा स्थविरकल्पी अपनी-अपनी उपाधि को साथ लेकर ही विहार करें, परन्तु साधु ने जिस क्षेत्र से आहार-पानी लिया है, उसको वह उस क्षेत्र से अर्द्ध योजन अर्थात् दो कोस प्रमाण तक ही ले जा सकता है, आगे नहीं। यदि आगे ले जाएगा, तो उसको "क्षेत्र-विक्रान्त" दोष लगेगा। __ इस रीति से विहार करके उपाश्रय में आकर गुरू आदि के सम्मुख आलोचनादि करके
और उनके समक्ष भोजनादि करने के अनन्तर उसे फिर जो कुछ करना चाहिए, अब उसके विषय में कहते हैं -
चउत्थीए पोरिसीए, निक्खिवित्ताण भायणं । सज्झायं च तओ कुज्जा, सव्वभावविभावणं ॥ ३७॥
चतुर्थ्यां पौरुष्यां, निक्षिप्य भाजनम्।
स्वाध्यायं च ततः कुर्यात्, सर्वभावविभावनम् ॥ ३७॥ पदार्थान्वयः-चउत्थीए-चतुर्थी, पोरिसीए-पौरुषी में, निक्खिवित्ताण-निक्षेपण करके, भायणं-भाजनों को, तओ-तदनन्तर, सज्झायं-स्वाध्याय, कुज्जा-करे, च-पुनः जो, सव्वभाव-सर्व भावों का, विभावणं-प्रकाशक है।
मूलार्थ-चौथी पौरुषी के आ जाने पर पात्रों को रखकर सर्व भावों का प्रकाश करने वाले स्वाध्याय को करे।
___टीका-जब तृतीय पौरुषी का समय समाप्त हो जाए और चतुर्थ पौरुषी का समय आरम्भ हो, तब मुनि को चाहिए कि वह अपने पात्रादि उपकरणों की प्रतिलेखना करके उन्हें अलग रख देवे, और सर्व भावों को प्रकाशित करने वाले स्वाध्याय में प्रवृत्त हो जाए। कारण यह है कि स्वाध्याय के अनुष्ठान से जीवाजीवादि पदार्थों का भली-भांति ज्ञान हो जाता है, इसीलिए स्वाध्याय सर्व प्रकार के दुःखों से विमुक्त करने वाला है।
__ तात्पर्य यह है कि स्वाध्याय के आचरण से यथार्थ ज्ञान के साथ-साथ सम्यग्-दर्शन और सम्यक्-चारित्र की भी प्राप्ति हो जाती है, तथा ज्ञानावरणीय कर्मों का क्षय वा क्षयोपशम भी हो जाता .
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४८] सामायारी छव्वीसइमं अज्झयणं .