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है और उस क्रोध के वश हुए वे संयम के अनुष्ठान से भी पराङ्मुख हो जाते हैं।
गौरव का अर्थ है अपनी आत्मा में गुरुत्व का अनुभव करना, अभिमान करना। अब फिर इसी विषय में कहते हैं -
भिक्खालसिए एगे, एगे ओमाणभीरुए । थद्धे एगेऽणुसासम्मि, हेऊहिं कारणेहि य ॥ १० ॥ भिक्षालसिक एकः, एकोऽवमानभीरुकः ।
स्तब्ध एकोऽनुशास्मि, हेतुभिः कारणैश्च ॥ १० ॥ पदार्थान्वयः-एगे-कोई, भिक्खालसिए-भिक्षाचारी में आलस्य करने वाला, एगे-कोई एक, ओमाणभीरुए-अपमान से डरने वाला, थद्धे-स्तब्ध अर्थात् अहंकारी, य-और, एगे-कुछ एक-मैं कैसे, अणुसासम्मि-अनुशासन करूं, हेऊहिं-हेतुओं, य-और, कारणेहि-कारणों से।
मूलार्थ-कोई शिष्य भिक्षा में आलस्य करने वाला होता है, कोई कुशिष्य अपमान से डरता है और कोई अहंकारी होता है। (आचार्य कहते हैं कि ऐसे शिष्यों को ) मैं किन हेतुओं
और कारणों से शिक्षित करूं? . ___टीका-प्रस्तुत गाथा में कुशिष्यों के आचरण और उनके शासन करने में आचार्यों को कठिनता के अनुभव का दिग्दर्शन कराया गया है। कुछ शिष्य तो भिक्षा लाने में ही आलस्य करते हैं, अर्थात् भिक्षा के निमित्त गृहस्थों के घरों में जाने की उनकी इच्छा ही नहीं होती तथा कुछ अपमान एवं लज्जा से भय खा जाते हैं, अर्थात् लज्जा के मारे वे किसी गृहस्थ के घर में नहीं जाते, तथा कुछ अहंकारी हो जाते हैं, अभिमान के वशीभूत हुए अपना दुराग्रह ही नहीं छोड़ते। ऐसी दशा में आचार्य कहते हैं कि-ऐसे कुशिष्यों को हम किस प्रकार से शिक्षित करें ? उनके लिए कौन से हेतु उपस्थित करें अथवा ऐसे किन कारणों को ढूंढे, जिनसे कि उनको अपने संयम-मार्ग की रक्षा एवं पालन का ध्यान आए।
सारांश यह है कि ऐसे धृष्ट शिष्यों को शिक्षा देने पर भी सफल न होने से आचार्यों को प्रसन्नता नहीं होती।
यहां पर 'कथं' पद का अध्याहार कर लेना चाहिए और आर्षवाणी होने से पुरुष व्यत्यय जानना।
आचार्यों द्वारा शिक्षा दिए जाने पर उसका क्या फल होता है, अब इस विषय में कहते हैं -
सो वि अन्तरभासिल्लो, दोसमेव पकव्वई । आयरियाणं तु वयणं, पडिकूलेइऽभिक्खणं ॥ ११ ॥ सोऽप्यन्तरभाषावान् दोषमेव प्रकरोति । आचार्याणां तु वचनं, प्रतिकूलयत्यभीक्ष्णम् ॥ ११ ॥
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [६६] खलुंकिन्जं सत्तवीसइमं अज्झयणं