Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 483
________________ अब इनके अन्तरकाल के विषय में कहते हैं, यथा अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । विजढम्मि सए काए, देवाणं हुज्ज अंतरं ॥ २४५ ॥ अनन्तकालमुत्कृष्टम्, अन्तर्मुहूर्तं जघन्यकम् । वित्यक्ते स्वके काये, देवानां भवेदन्तरम् ॥ २४५ ॥ पदार्थान्वयः-देवाणं-देवों के, सए काए-स्वकाय के, विजढम्मि-छोड़ने पर, जहन्नयं-जघन्य, अंतोमुहुत्तं-अन्तर्मुहूर्त, और, उक्कोसं-उत्कृष्ट, अणंतकालं-अनन्तकाल का, अंतरं-अन्तर, हुज्जहोता है। ____ मूलार्थ-देवों के स्वकाय को छोड़ने पर जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट अनन्तकाल का होता है। ___टीका-जिस समय देवता देवलोक से च्यवकर मनुष्य या तिर्यक् लोक में आता है, तब वहां से फिर उसी देवलोक में जाने के लिए उसे कितना समय लगता है ? इस प्रश्न के उत्तर में शास्त्रकार कहते हैं कि कम से कम तो अन्तर्मुहूर्त और अधिक से अधिक अनन्तकाल का समय लग जाता है। तात्पर्य यह है कि कम से कम वापिस आए तब तो अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् आ जाता है और अधिक से अधिक वह अनन्तकाल के पश्चात् आकर जन्म ले सकता है। तथा-इस विषय में जो विशेष है, अब उसका वर्णन करते हैं अणंतकालमुक्कोसं, वासपुहुत्तं .जहन्नयं । आणयाईण देवाणं, गेविज्जाणं तु अंतरं ॥ २४६ ॥ अनन्तकालमुत्कृष्टं, वर्षपृथक्त्वं जघन्यकम् । आनतादीनां देवानां ग्रैवेयकानान्तु अन्तरम् ॥ २४६ ॥ पदार्थान्वयः-आणयाईण-आनतादि, गेविज्जाणं-नवग्रैवेयक, देवाणं-देवों का, जहन्नयं-जघन्य, अंतरं-अन्तर, वासपुहुत्तं-पृथक् वर्ष, तु-और, उक्कोसं-उत्कृष्ट, अणंतकालं-अनन्त-काल का होता है। मूलार्थ-आनतादि नवग्रैवेयक देवों का जघन्य अन्तरकाल पृथक् वर्ष और उत्कृष्ट अनन्त काल का होता है। ____टीका-नवमें स्वर्ग से लेकर इक्कीसवें स्वर्ग तक के देवों का अन्तरकाल तो पृथक् वर्ष है और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक का होता है। दो से लेकर ९ तक की संख्या को पारिभाषिक शब्दावली में पृथक् कहते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि जब कोई देव इन उक्त देवलोकों से च्यवकर मनुष्यलोक में जन्म धारण करता है, तब जघन्य पृथक् वर्ष के पश्चात् फिर उक्त स्वर्गों में जाकर उत्पन्न होता है, क्योंकि यदि वह निगोद में चला गया तो वहां पर वह अनन्तकाल तक जन्म-मरण करता रहेगा। इतना और भी ध्यान रहे कि नवमें देवलोक से लेकर ऊपर के देवलोकों में जीव मनुष्ययोनि से ही जाकर उत्पन्न होते हैं और वहां से च्यव कर मनुष्ययोनि में ही जन्म धारण करते हैं। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४७४] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं

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