Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 490
________________ है, उसी के अनुसार आगामी गति में जाकर वह उत्पन्न होता है, अत: मरण के पहले इन भावनाओं की विधिपूर्वक आलोचना और प्रायश्चित करने की अत्यन्त आवश्यकता है, जिससे कि मृत्यु-समय में रही हुई ये भावनाएं इस जीव को दुर्गति में न ले जाएं। इसी आशय से प्रस्तुत गाथा में “मरणम्मि" पाठ दिया गया है। अब फिर इसी विषय में कहते हैं, यथा मिच्छादसणरत्ता, सनियाणा हु हिंसगा । इय जे मरंति जीवा, तेसिं पुण दुल्लहा बोही ॥ २५८ ॥ ‘मिथ्यादर्शनरक्ताः, सनिदानाः खलु हिंसकाः । इति ये म्रियन्ते जीवाः, तेषां पुनर्दुर्लभा बोधिः ॥ २५८ ॥ पदार्थान्वयः-मिच्छादसण-मिथ्यादर्शन में, रत्ता-अनुरक्त, सनियाणा-निदानसहित, हिंसगा-हिंसक, इय-इस प्रकार के, जे-जो, जीवा-जीव, मरंति-मरते हैं, हु-निश्चय में, पुण-फिर, तेसिं-उनको, दुल्लहा-दुर्लभ है, बोही-सम्यक्त्व की प्राप्ति। मूलार्थ-जो जीव मिथ्यादर्शन अर्थात् मिथ्यात्व में अनुरक्त हैं, तथा निदानपूर्वक क्रियानुष्ठान करते हैं और हिंसा में प्रवृत्त होते हैं, इस प्रकार के मनुष्यों को मृत्यु के पश्चात् बोधिलाभ अर्थात् सम्यक्त्व की प्राप्ति का होना अत्यन्त कठिन है। टीका-अतत्त्व में तत्त्व बुद्धि रखने का नाम मिथ्यात्व या मिथ्यादर्शन है, तथा फल की आशा से किया गया क्रियानुष्ठान सनिदान कहलाता है। हिंसा करने वाले जीवों को हिंसक कहते है। तात्पर्य यह है कि जो जीव मिथ्यादर्शन में रुचि रखते हैं, तथा जिनका धार्मिक क्रियानुष्ठान निदानपूर्वक है, और जो हिंसा में प्रवृत्त हैं, उनको मृत्यु के पश्चात् परलोक में बोधि का लाभ होना अर्थात् सद्धर्म की प्राप्ति होना अत्यन्त दुर्लभ है, क्योंकि सद्धर्म अर्थात् जिन-धर्म की प्राप्ति क्षयोपशमभाव पर अवलंबित है और मिथ्यादर्शनादि उसके प्रतिबन्धक हैं, इसलिए विचारशील पुरुष मिथ्यादर्शन सनिदान-क्रिया और हिंसक-प्रवृत्ति से सर्वथा अलग रहने का ही यत्न करें। अब मिथ्यादर्शन के प्रतिपक्षी सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के विषय में कहते हैं, यथा सम्मथसणरत्ता, अनियाणा सुक्कलेसमोगाढा । ... इय जे मरंति जीवा, तेसिं सुलहा भवे बोही ॥ २५९ ॥ - सम्यग्दर्शनरक्ताः, अनिदानाः शुक्ललेश्यामवगाढाः । इति ये नियन्ते जीवाः, तेषां सुलभा भवेद् बोधिः ॥ २५९ ॥ पदार्थान्वयः-जे-जो, जीवा-जीव, सम्मइंसणरत्ता-सम्यग्दर्शन में अनुरक्त हैं, अनियाणानिदान-रहित हैं, और, सुक्कलेसं-शुक्ललेश्या में, ओगाढा-प्रतिष्ठित हैं, इय-इस प्रकार के जो जीव, मरंति-मरते हैं, तेसिं-उनको परलोक में, बोही-बोधिलाभ-जिनधर्म की प्राप्ति, सुलहा-सुलभ, भवे-होती है। .. मूलार्थ-जो जीव सम्यग्दर्शन में अनुरक्त, निदान कर्म से रहित और शुक्ललेश्या में प्रतिष्ठित हैं, इस प्रकार के जीवों को परलोक में सद्धर्म की प्राप्ति सुलभ है। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४८१] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं

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