Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 489
________________ कोटि-सहित तप कहते हैं। यथा-किसी ने आज आचाम्ल किया और दूसरे दिन भी आचाम्ल ही किया हो, तब प्रथम और द्वितीय दिन की कोटि एक मिल गई, बस इसी को कोटी-सहित तप कहा गया है। तथा किसी-किसी आचार्य का मत है कि आज किसी एक व्यक्ति ने आचाम्ल तप धारण कर लिया और दूसरे दिन उसने किसी अन्य तप का ग्रहण कर लिया, परन्तु तीसरे दिन उसने फिर आचाम्ल तप को ग्रहण कर लिया हो, तो यह तप भी सकोटी अर्थात् कोटिसहित तप कहलाता है। कहा भी है-"प्रस्थापको दिवसः, प्रत्याख्यानस्य निष्ठापकश्च यत्र समितः द्वौ तु। तद् भण्यते कोटीसहितमेव" इस प्रकार बारहवें वर्ष में सकोटि तप का आचरण करने के अनन्तर यदि आयु शेष रहे तो एक पक्ष वा एक मास के आहार-त्याग के द्वारा भक्त प्रत्याख्यान आदि अनशन व्रत को धारण कर ले।.. सारांश यह है कि एक वर्ष पर्यन्त सकोटि तप का अनुष्ठान करके फिर एक पक्ष या एक मास के भक्त-प्रत्याख्यान से इस पार्थिव शरीर का त्याग करके शुभ-गति को प्राप्त होने का प्रयत्न करे, यही इस गाथा का अभिप्राय है। ___ यहां इतना ध्यान रहे कि जिस प्रकार की शक्ति हो, उसके अनुरूप ही भक्त-प्रत्याख्यान आदि तप का ग्रहण करना चाहिए, अर्थात् जब तप के द्वारा शरीर कृश हो जाए और उपशम के द्वारा कषाय कृश हो जाएं, तब अनशन व्रत धारण कर लेना चाहिए। अब त्यागने योग्य अशुभ भावनाओं का वर्णन करते हैं कंदप्पमाभिओगं च, किव्विसियं मोहमासुरत्तं च । एयाओ दुग्गईओ, मरणम्मि विराहया होंति ॥ २५७ ॥ कन्दर्पआभियोग्यञ्च, किल्विषिकं मोह आसुरत्वञ्च । एतास्तु दुर्गतयः, मरणे विराधका भवन्ति ॥ २५७ ॥ पदार्थान्वयः-कंदप्पं-कंदर्प-भावना, आभिओगं-अभियोग-भावना, किदिवसियं-किल्विष-भावना, मोह-मोह-भावना, च-और, आसुरत्तं-आसुरत्व-भावना, एयाओ-ये भावनाएं, दुग्गईओ-दुर्गति की हेतु होने से दुर्गतिरूप हैं, इनके प्रभाव से जीव, मरणम्मि-मरण के समय, विराहया-विराधक, होंति-होते हैं। ___मूलार्थ-कन्दर्प-भावना, अभियोग-भावना, किल्विष-भावना, मोह-भावना और आसुरत्व-भावना, ये भावनाएं दुर्गति की हेतुभूत होने से दुर्गतिरूप ही कही जाती हैं, तथा मरण के समय इन भावनाओं से जीव विराधक हो जाते हैं। ___टीका-जिन भावनाओं से यह जीव सुगति का नाश करके दुर्गति के हेतुभूत कर्मों का संचय कर लेता है, उन भावनाओं का दिग्दर्शन प्रस्तुत गाथा में कराया गया है और इनके प्रभाव से संयम का विराधक होता हुआ जीव दुर्गतियों में जाता है, इसलिए ये भावनाएं दुर्गतिरूप हैं। १. कन्दर्प-भावना, अर्थात् कामचेष्टा की भावना, २. अभियोग-भावना-मंत्र-तंत्रादि करने की भावना, ३. किल्विष-भावना-निन्दा करने की भावना, ४. मोह-भावना-विषयों की भावना, ५. आसुरत्व-भावना-क्रोध करने की भावना, ये पांचों ही भावनाएं वास्तव में दुर्भावनाएं हैं, क्योंकि इनसे दुर्गति की प्राप्ति होती है। मरण-समय में यदि इन भावनाओं का सद्भाव रहे तो जीव विराधक हो जाता है और जिस भावना में वह काल करता उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४८०] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अझंयणं

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