Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 487
________________ मूलार्थ - उत्कृष्ट संलेखना १२ वर्ष की, मध्यम १ वर्ष की और जघन्य ६ महीने की होती है। टीका - जिसके अनुष्ठान से द्रव्य से तो शरीर कृश हो जाए और भाव से कषाय भी कृश हो जाएं, उसी का नाम संलेखना है। उसके उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य, ये तीन भेद हैं। इनमें उत्कृष्ट १२ वर्ष की, मध्यम १ वर्ष की और जघन्य छः मास की है तथा जिस समय शेष आयु का निश्चय हो जाए, उस समय अनशनादि के द्वारा शरीर को और उपशमादि के द्वारा कषायों को कृश बनाने का प्रयत्न करे। इसी के लिए संलेखना का विधान है। अब उत्कृष्ट संलेखना के सम्बन्ध में कहते हैं, यथा पढमे वासचउक्कम्मि, विगई- निज्जूहणं करे । बिइ वासचक्कम्मि, विचित्तं तु तवं चरे ॥ २५३ ॥ प्रथमे वर्षचतुष्के, विकृतिनिर्यूहणं कुर्यात् । द्वितीये वर्षचतुष्के, विचित्रं तु तपश्चरेत् ॥ २५३ ॥ पदार्थान्वयः - पढमे - प्रथम, वास-वर्ष, चउक्कम्मि- चतुष्क में, विगई - विकृति-पदार्थों का, निज्जूहणं- परित्याग, करे - करे, तु-फिर, बिइए - द्वितीय, वासचउक्कम्मि - वर्षचतुष्क में, विचित्तं विचित्र - नाना प्रकार के, तवं चरे-तप का आचरण करे । मूलार्थ - प्रथम के चार वर्षों में विकृति-पदार्थों का त्याग करे और दूसरे चार वर्षों में नाना प्रकार की तपश्चर्या का अनुष्ठान करे। टीका- उत्कृष्ट संलेखना बारह वर्ष की कही गई है। उसके चार-चार वर्ष के तीन विभाग करके पहले और दूसरे चार-चार वर्षों में आचरणीय विषय का इस गाथा में वर्णन किया गया है । यथा - प्रथम के चार वर्षों में- विकृति-पदार्थ अर्थात् घृत, दुग्ध और दधि आदि का परित्याग कर दे और दूसरे चार वर्षों में विविध प्रकार के उपवास आदि तपों का आचरण करना चाहिए। कारण यह है कि सम्प्रदाय में ऐसी प्रथा चली आती है कि पारने के दिन उद्गम- विशुद्ध सर्व प्रकार के आहार कल्पनीय होते हैं, अतएव संलेखना में प्रवृत्त हुए मुनि के लिए विकृत पदार्थों का निषेध किया गया है। उक्त प्रकार से आठ वर्ष पूरे करने के अनन्तर अब तीसरे चार वर्षों के तप का उल्लेख करते हैं, यथा एगंतरमायामं, दुवे | कट्टु संवच्छरे तओ संवच्छरद्धं तु, नाइविगिट्ठे तवं चरे ॥ कृत्वा संवत्सरौ द्वौ । २५४ ॥ एकान्तरमायामं, ततः संवत्सरार्द्धन्तु, नातिविकृष्टं तपश्चरेत् ॥ २५४ ॥ पदार्थान्वयः - एगंतरं - एकान्त तप, आयामं - आचाम्लयुक्त, दुवे-दो, संवच्छरे - वर्ष पर्यन्त, कट्टु -करके, तओ - तदनन्तर, तु-फिर, संवच्छरद्धं-छः मास तक नाइविगिट्ठ-न अति विकट, तवं - तप का, चरे- आचरण करे । उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ४७८ ] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं'

Loading...

Page Navigation
1 ... 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506