Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 488
________________ मूलार्थ-आचाम्ल (आयंबिल) के पारणे से दो वर्ष पर्यन्त एकान्तर तप का आचरण करे, फिर छः मास तक कोई विकट तपस्या न करे। टीका-तीसरे वर्ष चतुष्क में दो वर्ष पर्यन्त एकान्तर तप करे, अर्थात् एक दिन उपवास और एक दिन आचाम्ल। तात्पर्य यह है कि उपवास का पारणा आचाम्ल से करे। इस प्रकार जब दस वर्ष पूरे हो - जाएं तब उसके अनन्तर छः मास तक साधारण तपस्या करे, अर्थात् किसी विकट तप का अनुष्ठान न करे। अब फिर कहते हैं तओ संवच्छरद्धं तु, विगिटुं तु तवं चरे । परिमियं चेव आयाम, तम्मि संवच्छरे करे ॥ २५५ ॥ ततः संवत्सरार्द्धन्तु, विकृष्टन्तु तपश्चरेत् । परिमितञ्चैवायाम, तस्मिन् संवत्सरे कुर्यात् ॥ २५५ ॥ पदार्थान्वयः-तओ-तदनन्तर, तु-पुनः, संवच्छरद्धं-आधे वर्ष तक, विगिळं-विकट, तवं चरे-तप का आचरण करे, तु-और, परिमियं-परिमित, आयाम-आचाम्ल, तम्मि-उस ग्यारहवें, संवच्छरे-वर्ष में, करे-करे, च-एव-पादपूर्णार्थक हैं। _ मूलार्थ-फिर छः मास तक विकट तप का आचरण करे, परन्तु उस तप के पारणे में आचाम्ल तप ही करे। . ... टीका-दस वर्ष छः मास के अनन्तर और ग्यारहवें वर्ष के अवशिष्ट छ: मास में विकट तपस्या करे, परन्तु पारणे में आचाम्ल तप ही करे। तात्पर्य यह है कि ग्यारहवें वर्ष के पहले छः मासों में तो साधारण तपस्या करे और दूसरे छः मास में कठिन तपस्या का आरम्भ कर दे, परन्तु पारणे में तो आचाम्ल ही करे, अर्थात् आचाम्ल से ही उपवासादि का पारणा करे। अब बारहवें वर्ष में आचरण करने योग्य तपस्या का वर्णन करते हैं कोडीसहियमायाम, कट्ट संवच्छरे मुणी । . . मासद्धमासिएणं तु, आहारेणं तवं चरं ॥ २५६ ॥ कोटीसहितमायाम, कृत्वा संवत्सरे मुनिः । - मासिकेनार्द्धमासिकेन तु, आहारेण तपश्चरेत् ॥ २५६ ॥ पदार्थान्वयः-कोडीसहियं-कोटी-सहित, आयाम-आचाम्ल-तप, संवच्छरे-बारहवें वर्ष पर्यन्त, मुणी-मुनि, कटु-करके, तु-पुनः, मासद्धं-मासार्द्ध अर्थात् अर्द्धमास, मासिएणं-मास पर्यन्त, आहारेणं-आहार के त्याग से, तवं चरे-तप का आचरण करे। मूलार्थ-मुनि बारहवें वर्ष में एक वर्ष पर्यन्त कोटी-सहित तप करे और आचाम्ल की पारणा करे, फिर पक्ष वा मास के आहार-त्याग से अनशन व्रत धारण कर ले। टीका-जब ग्यारह वर्ष समाप्त हो जाएं, तब बारहवें वर्ष में एक वर्ष पर्यन्त मुनि कोटीसहित तपस्या करे। जिस प्रत्याख्यान का आदि और अन्त एक मिलता हो उस प्रत्याख्यान को स उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ४७९] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं

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