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अब बादर के उत्तर भेदों का वर्णन करते हैं, यथा
बायरा जे उ पज्जत्ता, णेगहा ते वियाहिया । इंगाले मुम्मुरे अगणी, अच्चिजाला तहेव य ॥ १०९ ॥ उक्का विज्जू य बोधव्वा णेगहा एवमायओ ।
बादरा ये तु पर्याप्ताः, अनेकधा ते व्याख्याताः । अङ्गारो मुर्गुरोऽग्निः, अर्चिवला तथैव च ॥ १०९ ॥ उल्का विद्युच्च बोद्धव्याः, अनेकधा एवमादिकाः ।
पदार्थान्वयः - जे - जो, उ-फिर, बायरा - बादर, पज्जत्ता - पर्याप्त अग्निकाय के जीव हैं, ते-वे, गहा- अनेक प्रकार से, वियाहिया - वर्णन किए गए हैं, इंगाले - अंगार - निर्धूम अग्निखण्ड, मुम्मुरे - भस्ममिश्रित अग्निकण, अगणी - सामान्य अग्नि, अच्चि - मूलसहित अग्निशिखा, जाला-ज्वाला-मूलरहित अग्निशिखा, य-और, तहेव - उसी प्रकार, उक्का - उल्का, य-और, विज्जू - विद्युत, एवमायओं - इत्यादि, णेगहा- अनेक प्रकार की, बोधव्वा - जानना ।
मूलार्थ - बादर-पर्याप्त अग्नि अनेक प्रकार की वर्णन की गई है। यथा - अंगार, मुर्मुर अर्थात् चिनगारियां, अग्नि, दीपशिखा, मूलप्रतिबद्धशिखा, छिन्न- मूलशिखा, उल्का और विद्युत् इत्यादि तेजस्काय के अनेक भेद कहे गए हैं।
टीका-प्रस्तुत सार्द्ध गाथा में अग्निकाय के अवान्तर भेदों का वर्णन किया गया है।
अंगारक-धूमरहित अग्निखंड (जलते कोयले) को अंगारक या अंगार कहते हैं। मुर्मुर - भस्मयुक्त अग्नि-कणों का नाम है। अग्नि- प्रसिद्ध ही है। ज्वाला - अग्निशिखा या दीपशिखा आदि । अर्चि - विच्छिन्नमूल अथवा मूलबद्ध अग्निशिखा । उल्का - तारों की तरह पतित होने वाली आकाशाग्नि । विद्युत्इत्यादि अनेक भेद अग्नि के कहे गए हैं।
अब सूक्ष्म अग्निकाय के सम्बन्ध में कहते हैं, यथा
एगविहमनाणत्ता, सुहुमा ते वियाहिया । सुहुमा सव्वलोगम्मि, लोगदेसे य बायरा ॥ ११० ॥
एकविधा अनानात्वाः, सूक्ष्मास्ते व्याख्याताः । सूक्ष्माः सर्वलोके, लोकदेशे च बादराः ॥ ११० ॥
पदार्थान्वयः - एगविहं - एक प्रकार का, अनाणत्ता - नाना प्रकार के भेदों से रहित, सुहुमा - सूक्ष्म अग्निकाय के जीव, ते-वे, वियाहिया - वर्णन किए गए हैं। सुहुमा-सूक्ष्म, सव्वलोगम्मि - सर्व लोक में व्याप्त हैं, य-और, लोगदेसे -लोक के एक देश में, बायरा-बादर - अग्नि स्थित हैं।
मूलार्थ - सूक्ष्म अग्निकाय के जीव नाना प्रकार के भेदों से रहित केवल एक ही प्रकार के होते हैं तथा वे सूक्ष्म जीव तो सर्व लोक में व्याप्त हैं और बादर अर्थात् स्थूल जीव लोक के एक देश अर्थात् किसी भागविशेष में स्थित हैं।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ४१३] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं