Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 474
________________ ___ मूलार्थ-सनत्कुमार देवलोक में देवों की उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपम की और जघन्य दो सागरोपम की होती है। टीका-सनत्कुमार देवलोक में १२ लाख विमान हैं, जो कि द्वितीय स्वर्ग से वर्णादि की अपेक्षा अनन्तगुणा शुभ हैं। उन विमानों में रहने वाले देवों की उत्कृष्ट आयु सात सागर की और जघन्य दो सागर की प्रतिपादन की गई है। क्योंकि जिन भावों के द्वारा शुभ कर्मों का संचय किया जाता है, उन्हीं के अनुसार उसी प्रकार की स्थिति उपलब्ध होती है। अब माहेन्द्र देवों की स्थिति के विषय में कहते हैं साहिया सागरा सत्त, उक्कोसेण ठिई भवे । माहिदम्मि जहन्नेणं, साहिया दुन्नि सागरा ॥ २२४ ॥ साधिकानि सागराणि सप्त, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् । माहेन्द्रे जघन्येन, साधिके द्वे सागरे ॥ २२४ ॥ पदार्थान्वयः-माहिदम्मि-माहेन्द्र देवलोक में, जहन्नेणं-जघन्यरूप से, साहिया-कुछ अधिक, दुन्नि सागरा-दो सागर, उक्कोसेण-उत्कृष्टरूप से, साहिया-कुछ अधिक, सत्त सागरा-सात सागर की, ठिई-स्थिति, भवे-होती है। मूलार्थ-माहेन्द्र देवलोक में देवताओं की जघन्य स्थिति कुछ अधिक दो सागरोपम की और उत्कृष्ट कुछ अधिक सात सागरोपम की मानी गई है। टीका-माहेन्द्र देवलोक में ८ लाख विमान हैं। उन विमानों में रहने वाले देवों की यह आयु-स्थिति वर्णन की गई है। अब ब्रह्म देवलोक की स्थिति का वर्णन करते हैं दस चेव सागराइं, उक्कोसेण ठिई भवे । बभलाए जहन्नेण, सत्त उ सागरोवमा ॥ २२५ ॥ दश चैव सागरोपमाणि, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् । ब्रह्मलोके जघन्येन, सप्त तु सागरोपमाणि ॥ २२५ ॥ पदार्थान्वयः-बंभलोए-ब्रह्मलोक में, जहन्नेणं-जघन्यरूप से, सत्त-सात, सागरोवमा-सागरोपम की, उ-पुनः, उक्कोसेण-उत्कृष्टरूप से, दस-दश, सागराइं-सागरोपम की, ठिई-स्थिति, भवे-होती है, च-एव-पादपूर्ति में हैं। मूलार्थ-ब्रह्मलोक में जघन्य स्थिति सात सागरोपम की और उत्कृष्ट दश सागरोपम की होती है। ___टीका-ब्रह्मलोक में ४ लाख विमान हैं, जो कि अत्यन्त रमणीय हैं। इन विमानों में रहने वाले देवों की जघन्य और उत्कृष्ट आयु का इस गाथा में वर्णन किया गया है। इस स्वर्ग में संन्यासवृत्ति वाली आत्माएं भी जा सकती हैं, परन्तु आत्मा में आराधकता तभी आ सकती है, जबकि उसने सम्यग्-दर्शन, सम्यक्-ज्ञान और सम्यक्-चारित्र का भली-भांति आराधन किया हो, अन्यथा नहीं। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४६५] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं

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