Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 473
________________ पदार्थान्वयः - सोहम्मम्मि - सौधर्म देवलोक में, जहन्नेणं-जघन्यरूप से, एगं- एक, पलिओवमं- पल्योपम की, च- - और, उक्कोसेण- उत्कृष्ट रूप से, दो-दो, सागराई - दो सागर की स्थिति, वियाहिया–कथन की गई है, च एव - पादपूर्ति में हैं। मूलार्थ - सौधर्म देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति एक पल्योपम की और उत्कृष्ट दो सागरोपम की कथन की गई है। टीका- सौधर्म देवलोक में ३२ लाख विमान हैं, जो कि आयाम और विष्कम्भ में संख्यात और असंख्यात योजनों के तुल्य हैं। उनमें रहने वाले देवों की आयु का प्रस्तुत गाथा में वर्णन किया गया है, अर्थात् उनकी जघन्य आयु एक पल्योपम की और उत्कृष्ट दो सागर की प्रतिपादन की गई है। मध्यम स्थिति का कोई नियम नहीं । अब ईशान देवलोक के देवों की स्थिति का वर्णन करते हैं सागरा साहिया दुन्नि, उक्कोसेण वियाहिया । ईसाणम्मि जहन्नेणं, साहियं पलिओवमं ॥ २२२ ।। सागरे साधिके द्वे, उत्कर्षेण व्याख्याता । ईशाने जघन्येन, साधिकं पल्योपमम् ॥ २२२ ॥ पदार्थान्वयः - ईसाणम्मि - ईशान देवलोक में, जहन्नेणं - जघन्य रूप से, साहियं - साधिक, पलिओवमं- पल्योपम की, उक्कोसेण- उत्कृष्टता से, साहिया - कुछ अधिक, दुन्नि - दो, सागरा - सागरोपम की स्थिति, वियाहिया - प्रतिपादन की गई है। मूलार्थ - ईशान देवलोक में रहने वाले देवों की जघन्य स्थिति कुछ अधिक एक पल्योपम की और उत्कृष्ट कुछ अधिक दो सागरोपम की कथन की गई है। टीका - ईशान देवलोक में २८ लाख विमान हैं। उनका विस्तार संख्यात और असंख्यात योजनों का है। उनके विमानों में रहने वाले देवों की जघन्य और उत्कृष्ट आयुस्थिति का प्रस्तुत गाथा में वर्णन किया गया है। वह स्थिति कम से कम तो कुछ अधिक एक पल्योपम की और अधिक से अधिक दो सागरोपम की मानी गई है। इससे प्रथम की अपेक्षा दूसरे देवलोक में स्थिति की यत्किंचित् विशेषता बतलाई गई है। अब सनत्कुमार देवों की स्थिति के विषय में कहते हैं सागराणि य सत्तेव, उक्कोसेण ठिई भवे । सकुमारे जहन्नेणं, दुन्नि ऊ सागरोवमा ॥ २२३ ॥ सागराणि च सप्तैव, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् । सनत्कुमारे जघन्येन, द्वे तु सागरोपमे ॥ २२३ ॥ पदार्थान्वयः-सणंकुमारे- सनत्कुमार देवलोक में, जहन्नेणं - जघन्यरूप से, दुन्नि ऊ-दो, सागरोवमा - सागरोपम की, ठिई-स्थिति, य-पुनः, उक्कोसेण - उत्कृष्टरूप से, सत्तेव- सात ही, सागराणि - सागरोपम की, भवे - होती है। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ४६४] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं

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