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तथाहि
संतई पप्प णाईया, अपज्जवसियावि य । ठिई पडुच्च साईया, सपज्जवसियावि य ॥ २१७ ॥
सन्ततिं प्राप्यानादिकाः, अपर्यवसिता अपि च ।
स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः, सपर्यवसिता अपि च ॥ २१७ ॥ पदार्थान्वयः-संतई-सन्तति की, पप्प-अपेक्षा से, अणाईया-अनादि, य-और, अपज्जवसियावि-अपर्यवसित भी हैं, ठिई-स्थिति की, पडुच्च-प्रतीति से, साईया-सादि, य-तथा, सपज्जवसियावि-सपर्यवसित भी हैं।
मूलार्थ-वे देव प्रवाह की अपेक्षा से अनादि-अपर्यवसित और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सपर्यवसित हैं।
टीका-सन्तान अर्थात् प्रवाह की अपेक्षा से ये अनादि-अनन्त अर्थात् सदैव विद्यमान रहने वाले हैं और इनकी भव तथा काय-स्थिति की मर्यादा को देखते हुए ये सादि और सान्त प्रतीत होते हैं, इसलिए अपेक्षाभेद से ये अनादि-अनन्त और सादि-सान्त उभय प्रकार के सिद्ध होते हैं।
यह इनका चार प्रकार से कालविभाग का वर्णन किया गया। अब इनकी स्थिति के विषय में कहते हैं
साहियं सागरं एक्कं, उक्कोसेण ठिई भवे । भोमेज्जाणं जहन्नेणं, दसवाससहस्सिया ॥ २१८ ॥
साधिकं सागरमेकम्, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् ।
भौमेयानां जघन्येन, दशवर्षसहस्त्रिका ॥ २१८ ॥ पदार्थान्वयः-भोमेज्जाणं-भवनपति देवों की, जहन्नेणं-जघन्य रूप से, ठिई-स्थिति, दसवाससहस्सिया-दश हजार वर्ष की, भवे-होती है, उक्कोसेण-उत्कृष्टता से, साहियं सागरं, एक्कं-कुछ अधिक एक सागरोपम की है।
मूलार्थ-भवनवासी देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट कुछ अधिक एक सागरोपम की होती है। ____टीका-यद्यपि यहां पर सामान्यरूप से सभी भवनपति देवों की स्थिति का वर्णन किया गया है, तथापि इसका मुख्य सम्बन्ध असुर कुमारों से है। जैसे कि, प्रत्येक भवनवासी देव की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की होती है, परन्तु चमरेन्द्र और बलि-इन्द्र की स्थिति कुछ अधिक एक सागरोपम की मानी गई है। तथा जघन्य से अधिक और उत्कृष्ट से न्यून यह मध्यम स्थिति है। अब व्यन्तरों की भवस्थिति का वर्णन करते हैं, यथा
पलिओवममेगं तु, उक्कोसेण ठिई भवे । वंतराणं जहन्नेणं, दसवाससहस्सिया ॥ २१९ ॥
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ४६२] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं