Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 455
________________ सुषम-सुषम-काल एवं देवकुरु और उत्तरकुरु प्रदेशों की अपेक्षा से ही किया गया है। मध्यम स्थिति का कोई नियम नहीं है। अब इनकी काय-स्थिति का वर्णन करते हैं, यथा पलिओवमाइं तिन्नि उ, उक्कोसेण वियाहिया । पुव्वकोडिपुत्तेणं, अंतोमुहत्तं जहन्निया । कायठिई थलयराणं, अंतरं तेसिमं भवे ॥ १८५ ॥ पल्योपमानि त्रीणि तु, उत्कर्षेण व्याख्याता । पूर्वकोटिपृथक्त्वेन, अन्तर्मुहूर्तं जघन्यका । कायस्थितिः स्थलचराणां, अन्तरं तेषामिदं भवेत् ॥ १८५ ॥ पदार्थान्वयः-तिन्नि-तीन, पलिओवमाइं-पल्योपम, पुव्वकोडिपुहुत्तेणं-पूर्वकोटि पृथक्-अधिक, उक्कोसेण-उत्कृष्टरूप से, कायठिई-कायस्थिति, थलयराणं-स्थलचरों की, वियाहिया-वर्णन की गई है, जहन्निया-जघन्य, अंतोमुहुत्तं-अन्तर्मुहूर्त की है, उ-प्राग्वत्, तेसिमं-उनका यह, अंतरं-अन्तर, भवे-होता है। मूलार्थ-तीन पल्योपम सहित पृथक् कोटि (२ से लेकर ९ पूर्व कोटि तक) की उत्कृष्ट और अन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण जघन्य काय-स्थिति स्थलचर जीवों की प्रतिपादन की गई है, उनका निम्नलिखित अन्तर है। टीका-यदि यह जीव निरन्तर स्थलचरों में ही जन्मता और. मरता रहे तो कम से कम तो वह अन्तर्मुहूर्त में स्वकाया से जन्म-मरण धारण कर सकता है और अधिक से अधिक पृथक् कोटि पूर्व, अर्थात् करोड़-करोड़ पूर्व के सात व आठ भव करके फिर तीन कल्प की आयु वाला स्थलचर पंचेंद्रिय तिर्यंच बन जाता है। तदनन्तर वह देवलोक में चला जाता है, अत: तीन पल्योपम. अधिक पृथक् कोटि पूर्व की कायस्थिति स्थलचर जीवों की कथन की गई है। इससे अधिक काल तक वह निरन्तर स्थलचरों में जन्म-मरण नहीं कर सकता। इसका अभिप्राय यह है कि करोड़-करोड़ पूर्व के सात भव करके आठवें भव में स्थलचर जीव युगलियों में उत्पन्न होकर फिर वह देवलोक में चला जाता है, अन्य योनियों में नहीं जाता। इसीलिए पृथक् कोटि पूर्व अधिक तीन पल्योपम की उत्कृष्ट कायस्थिति स्थलचर जीवों की प्रतिपादन की गई है। अब इनका अन्तर बताते हुए कहते हैं, यथा अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । . विजढम्मि सए काए, थलयराणं तु अंतरं ॥ १८६ ॥ अनन्तकालमुत्कृष्टम्, अन्तर्मुहूर्तं जघन्यकम् । वित्यक्ते स्वके काये, स्थलचराणां त्वन्तरम् ॥ १८६ ॥ पदार्थान्वयः-उक्कोसं-उत्कृष्ट, अणंतकालं-अनन्तकाल, जहन्नयं-जघन्य, अंतोमुहत्तं-अन्तर्मुहूर्त, सए काए-स्वकाय के, विजढम्मि-त्यागने पर, थलयराणं-स्थलचरों का, अंतरं-अन्तराल होता है। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४४६] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अझंयणं

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