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मूलार्थ-इन खेचर जीवों के-वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श तथा संस्थान आदि की अपेक्षा से हजारों भेद हो जाते हैं। ___टीका-वर्ण-गन्धादि के तारतम्य को लेकर खेचर जीवों के असंख्य भेद हो जाते हैं, इत्यादि पूर्ववत् ही जान लेना चाहिए। .. अब मनुष्यों के विषय में कहते हैं, यथा
मणुया दुविहभेया उ, ते मे कित्तयओ सुण । संमुच्छिमा य मणुया, गब्भवक्कतिया तहा ॥ १९४ ॥
मनुजा द्विविधभेदास्तु, तान् मे कीर्तयतः श्रृणु ।
संमूच्छिमाश्च मनुजाः, गर्भव्युत्क्रान्तिकास्तथा ॥ १९४ ॥ पदार्थान्वयः-मणुया-मनुष्य, दुविहभेया-दो भेद वाले हैं, उ-फिर, ते-उन, भेदों को, कित्तयओ-कथन करते हुए, मे-मुझ से, सुण-श्रवण करो, संमुच्छिमा-संमूछिम, मणुया-मनुष्य, तहा-उसी प्रकार, गब्भवक्कंतिया-गर्भव्युत्क्रान्त-मनुष्य।
मलार्थ-गुरु कहते हैं कि हे शिष्य ! मनुष्यों के दो भेद हैं-संमूच्छिम और गर्भव्युत्क्रान्तिक-गर्भज, सो इनके भेदों को तुम मुझसे श्रवण करो !
टीका-समूच्छिम मनुष्य और गर्भज मनुष्य इस प्रकार मनुष्यों के दो भेद हैं। समूच्छिम मनुष्य चतुर्दश अशुचि स्थानों-अपवित्र मलमूत्रादि-में उत्पन्न होते हैं। वे बिना मन के होते हैं तथा मनुष्य के अवयवों से उत्पन्न होने से ही उनकी मनुष्य संज्ञा होती है और उनकी अवगाहना अंगुल के असंख्येय भाग जितनी होती है, इनको असंज्ञी मनुष्य भी कहते हैं। द्वितीयं मनुष्य, गर्भज अर्थात् गर्भ से उत्पन्न होने वाले हैं, इन में मनःपर्याप्ति का सद्भाव होता है, इसलिए ये संज्ञी मनुष्य कहलाते हैं। अब प्रथम गर्भज मनुष्य के भेदों का वर्णन करते हैं, यथा
गब्भवक्कंतिया जे उ, तिविहा ते वियाहिया । कम्म-अकम्मभूमा य, अंतरद्दीवया तहा ॥ १९५ ॥
गर्भव्युत्क्रान्तिका ये तु, त्रिविधास्ते व्याख्याताः ।
कर्माकर्मभूमाश्च, अन्तरद्वीपकास्तथा ॥ १९५ ॥ पदार्थान्वयः-जे-जो, उ-पुनः, गब्भवक्कंतिया-गर्भज़ मुनष्य हैं, ते-वे, तिविहा-तीन प्रकार के, वियाहिया-वर्णन किए गए हैं, कम्म-कर्मभूमिक, य-और, अकम्मभूमा-अकर्मभूमिक, तहा-तथा, अंतरद्दीवया-अन्तर-द्वीपक।
मूलार्थ-गर्भज मनुष्य तीन प्रकार के हैं जैसे कि कर्मभूमिक, अकर्मभूमिक और अन्तर-द्वीपक। टीका-गर्भ से उत्पन्न होने वाले मनुष्य तीन प्रकार के वर्णन किए गए हैं :
१. कर्मभूमिक-असि, मसि, कृषि, वाणिज्य और शिल्प-कलादि के द्वारा जहां पर जीवन-निर्वाह किया जाए, वह कर्मभूमि कहलाती है। उसमें रहने वाले मनुष्य कर्मभूमिक कहे जाते हैं।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ४५० ] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अन्झयणं