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तथाहि
संतई पप्प णाईया, अपज्जवसियावि य । । ठिइं पडुच्च साईया, सपज्जवसियावि य ॥ १८९ ॥
सन्ततिं प्राप्यानादिकाः, अपर्यवसिता अपि च ।
स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः, सपर्यवसिता अपि च ॥ १८९ ॥ . पदार्थान्वयः-संतई-सन्तान अर्थात् प्रवाह की, पप्प-अपेक्षा से, अणाईया-अनादि, य-और, अपज्जवसियावि-अपर्यवसित भी हैं, ठिइं-स्थिति की, पडुच्च-प्रतीति से, साईया-सादि, य-और, सपज्जवसियावि-सपर्यवसित भी हैं।
मूलार्थ-प्रवाह की अपेक्षा से ये खेचर जीव अनादि और अनन्त हैं, परन्तु स्थिति की अपेक्षा से आदि और अन्त वाले हैं।
टीका-जब हम सन्तान की अपेक्षा से विचार करते हैं तब तो ये खेचरादि जीव अनादि-अनन्त सिद्ध होते हैं, क्योंकि इनका सद्भाव सदैव बना रहता है, और यदि इनकी आयु और कायस्थिति आदि की ओर ध्यान देते हैं, तब ये सादि-सान्त सिद्ध होते हैं, इसलिए अपेक्षाभेद से ये चार प्रकार से प्रमाणित होते हैं। अब इनकी स्थिति के विषय में कहते हैं
पलिओवमस्स भागो, असंखेज्जइमो भवे । आउठिई खहयराणं, अंतोमुहुत्तं जहन्निया ॥ १९० ॥
पल्योपमस्य भागः, असङ्ख्येयतमो भवेत् ।
आयुःस्थितिः खेचराणां, अन्तर्मुहूर्तं जघन्यका ॥ १९० ॥ पदार्थान्वयः-पलिओवमस्स-पल्योपम के, असंखेज्जइमो-असंख्येयतम, भागो-भाग जितनी, “आउठिई-आयुस्थिति, खहयराणं-खेचरों की, भवे-होती है, जहन्निया-जघन्य स्थिति,
अंतोमुहुत्तं-अन्तर्मुहूर्त की होती है। ____ मूलार्थ-खेचर जीवों की उत्कृष्ट आयु-स्थिति, पल्योपम के असंख्येय भाग प्रमाण है और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है।
टीका-प्रस्तुत गाथा में खेचरों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति का वर्णन किया गया है। इनकी उत्कृष्ट आयु पल्योपम के असंख्येय भाग जितनी है, तथा जघन्य अन्तर्मुहूर्त की मानी गई है। यह स्थिति ५६ अन्तर-द्वीपों में युगलियों के भव में जो उत्पन्न होते हैं उनकी अपेक्षा से वर्णन की गई है। अब इनकी कायस्थिति के सम्बन्ध में कहते हैं
असंखभागो पलियस्स, उक्कोसेण उ साहिया । पुव्वकोडिपुहुत्तेणं, अंतोमुहुत्तं जहन्निया ॥ १९१ ॥ . कायठिई खहयराणं,
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ४४८] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं