Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 468
________________ तहा - तथा, ईसाणगा - ईशान देवलोक, सणकुमार - सनत्कुमार देवलोक, माहिंदा - माहेन्द्र देवलोक, बम्भलोगा-ब्रह्म देवलोक, य-और, लंतगा - लान्तक देवलोक, महासुक्का - महाशुक्र देवलोक, सहस्सारा - सहस्रार देवलोक, आणया-आनत देवलोक, तहा- तथा, पाणया-प्राणत देवलोक, आरणा-आस्ण देवलोक, च- और, अच्चुया- अच्युत देवलोक, इइ - इस प्रकार, कप्पोवगा - कल्पोत्पन्न, सुरा - देव हैं। मूलार्थ - कल्पवासी देवों के १२ भेद हैं- सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लान्तक, महाशुक्र, सहस्त्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत । इस प्रकार कल्पदेवलोकों में रहने वाले देव कल्पोत्पन्न या कल्पवासी कहे जाते हैं। टीका - उक्त संख्या वाले कल्प- देवलोक १२ प्रकार के हैं। उनमें उत्पन्न होने वाले देव भी उन्हीं कल्पों के नाम प्रसिद्ध हैं। जैसे कि - सुधर्म देवलोक में उत्पन्न होने वाले सौधर्म, ईशान देवलोक में उत्पन्न होने वाले ऐशान। इसी प्रकार अन्य देवों के नाम भी जान लेना चाहिए। तात्पर्य यह है कि जो पुरुष जिस देश व जिस क्षेत्र में उत्पन्न होता है, वह उस देश व क्षेत्र के सम्बन्ध से उसी नाम पर बुलाया जाता है। जैसे- गुजरात में उत्पन्न होने वाले को गुजराती, पंजाब में पैदा होने वाले को पंजाबी, और इसी प्रकार मारवाड़ में उत्पन्न होने को मारवाड़ी तथा मालव देश के पुरुष को मालवी कहा जाता है, इसी प्रकार जिस देवलोक यह जीव उत्पन्न होता है, उसी के नाम से उसकी संज्ञा पड़ जाती है इत्यादि । अब कल्पातीत देवों के विषय में कहते हैं, यथा कप्पाईया उ जे देवा, दुविहा ते वियाहिया । गेविज्जाणुत्तरा चेव, गेविज्जा नवविहा तहिं ॥ २११ ॥ कल्पातीतास्तु ये देवाः, द्विविधास्ते व्याख्याताः । ग्रैवेयका अनुत्तराश्चैव, ग्रैवेयका नवविधास्तत्र ॥ २११ ॥ पदार्थान्वयः - कप्पाईया-कल्पातीत, जे जो, देवा देव हैं, ते-वे, दुविहा- दो प्रकार के, वियाहिया-वर्णन किए हैं, गेविज्जा-ग्रैवेयक, च-अ - और, अणुत्तरा - अनुत्तर, तहिं - उनमें, गेविज्जा - ग्रैवेयक, नवविहा- नौ प्रकार के हैं, उ-एव- प्राग्वत् । मूलार्थ - कल्पातीत देव दो प्रकार के हैं-ग्रैवेयक और अनुत्तरविमानवासी। इनमें ग्रैवेयक देव नौ प्रकार के हैं। टीका- ग्रैवेयक और अनुत्तर - विमानवासी ये दो भेद कल्पातीत देवों के कहे हैं। इनमें ग्रैवेयक ९ प्रकार के हैं। १. ग्रैवेयक- जो लोक-पुरुष की ग्रीवा के समान है तथा जैसे ग्रीवा में अधिक सुन्दर भूषण डाला जाता है और सारे शरीर में उसकी शोभा अधिक होती है, उसी प्रकार त्रयोदशरज्जूप्रमाण लोक के उपरिवर्त्ती प्रदेश में स्थिति होने से उनका नाम ग्रैवेयक है। २. अनुत्तर - जिससे उत्तर - अधिक प्रधान- स्थिति, प्रभाव, सुख, द्युति और लेश्यादि अन्यत्र नहीं हैं, उसे अनुत्तर कहते हैं। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ४५९] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं

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