Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 464
________________ एएसिं वण्णओ चेव, गंधओ रसफासओ । संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥ २०२ ॥ एतेषां वर्णतश्चैव, गन्धतो रसस्पर्शतः । संस्थानादेशतो वापि, विधानानि सहस्रशः ॥ २०२ ॥ पदार्थान्वयः-एएसिं-इन मनुष्यों के, वण्णओ-वर्ण से, च-और, गंधओ-गन्ध से, रसफासओ-रस और स्पर्श से, वा-तथा, संठाणादेसओवि-संस्थान के आदेश से भी, सहस्ससो-हजारों, विहाणाई-भेद हो जाते हैं। ___ मूलार्थ-वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से मनुष्यों के हजारों उपभेद हो जाते हैं। टीका-वर्ण-गन्धादि के तारतम्य से मनुष्यों के असंख्य भेद बन जाते हैं। अब देवों के विषय में कहते हैं, यथा देवा चउव्विहा वुत्ता, ते मे कित्तयओ सुण । भोमिज्ज-वाणमंतरा, जोइस वेमाणिया तहा ॥ २०३ ॥ देवाश्चतुर्विधा उक्ताः, तान् मे कीर्तयतः श्रृणु । भौमेया व्यन्तराः, ज्योतिष्का वैमानिकास्तथा ॥ २०३ ॥ पदार्थान्वयः-देवा-देवता, चउब्विहा-चार प्रकार के, वुत्ता-कहे गए हैं, ते-उन भेदों को, कित्तयओं-कहते हुए, मे-मुझसे, सुण-श्रवण करो, भोमिज्ज-भौमेय, वाणमंतरा-व्यन्तर, जोइस-ज्योतिषी, तहा-तथा, वेमाणिया-वैमानिक। __ मूलार्थ-हे शिष्य ! देवों के चार भेद हैं-भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक, अब इनके भेदों को तुम मुझसे श्रवण करो ! टीका-आचार्य कहते हैं कि हे शिष्य ! भौमेय, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक, ये चार प्रकार के देव कहे जाते हैं। अब मैं इनके भेदों का वर्णन करता हूं, तुम उनको सुनो, यही उक्त गाथा का भाव है। (१) भवनपति-इनका निवास स्थान रत्नप्रभा पृथिवी है। रत्न-प्रभा का पृथिवी-पिंड १ लाख ८० हजार योजन स्थूल है। उसमें से एक सहस्र योजन ऊपर और एक सहस्र योजन नीचे छोड़ दिया जाए तो मध्य के १ लाख ७८ हजार योजन में भवनपति देवों के ७ करोड़ ७२ लाख भवन प्रतिपादन किए गए हैं, जिनमें कि प्रायः भवनपति देवों की उत्पत्ति मानी गई है। . (२) व्यन्तर-जिनके उत्कर्ष और अपकर्षमय रूपविशेष हैं, तथा गिरिकन्दराओं और वृक्षों के विवरादि में जिनका निवास होता है उनको व्यन्तरदेव कहते हैं; अर्थात् जो अधः, तिर्यक् और ऊर्ध्व इन तीनों लोकों में अपनी इच्छा के अनुसार भ्रमण करते हुए शैलकन्दरान्तर, वन, विवरादि में निवास करते हैं वे व्यन्तर कहलाते हैं। तिर्यक-लोक में इनकी असंख्यात राजधानियां हैं। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ४५५] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं

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