Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 461
________________ समुच्छिना __(१-भेद) १. एकोरुक, २. आभाषिक, ३. लांगूलिक और ४. वैषाणिक, ये चार द्वीप लवण समुद्र की जगतिकोट से तीन सौ योजन के अन्तर पर बसते हैं। इस प्रकार आगे सौ-सौ योजन समुद्र का अन्तर और द्वीपों का विस्तार कर लेना यह प्रथम भेद हुआ। (२-भेद) १. हयकर्ण, २. गजकर्ण, ३. गोकर्ण और ४. शष्कुलीकर्ण। (३-भेद) १. आदर्शमुख, २. मेषमुख, ३. हयमुख और ४. गजमुख। (४-भेद) १. अश्वमुख, २. हस्तीमुख, ३. सिंहमुख और ४. व्याघ्रमुख। (५-भेद) १. अश्वकर्ण, २. सिंहकर्ण, ३. गजकर्ण और ४. कर्णप्रावरण। (६-भेद) १. उल्कामुख, २. विद्युन्मुख, ३. जिह्वामुख और ४. मेघमुख। (७-भेद) १. घनदन्त, २. गूढदन्त, ३. श्रेष्ठदन्त और ४. शुद्धदन्त। इस प्रकार ये सात भेद हुए। सातों युगल सात सौ योजन के जगतिकोट से समुद्र के अन्तर में सात सौ योजन विस्तार वाले अन्तरद्वीपों के रूप हैं। वहां पर इन्हीं नामों वाले युगलिय मनुष्यों का निवास है। इस विषय का विस्तृत वर्णन जीवाभिगम-सूत्र में प्राप्त होता है। अब संमूच्छिम मनुष्यों के विषय में कहते हैं संमुच्छिमाण एसेव, भेओ होइ वियाहिओ । लोगस्स एगदेसम्मि, ते सव्वे वि वियाहिया ॥ १९७ ॥ सम्मूछिमाणामेष एव, भेदो भवति व्याख्यातः । लोकस्यैकदेशे, ते सर्वेऽपि व्याख्याताः ॥ १९७ ॥ पदार्थान्वयः-संमुच्छिमाण-संमूछिम मनुष्यों के, एसेव-यही, भेओ-भेद, होइ-होते हैं, वियाहिओ-तीर्थङ्करों द्वारा कहा गया है, ते–वे, सव्वे वि-सब ही, लोगस्स-लोक के, एगदेसम्मि-एकदेश में, वियाहिया-वर्णन किए गए हैं। मूलार्थ-जो भेद गर्भज मनुष्यों के वर्णन किए गए हैं, वे ही सब संमूछिम मनुष्यों के होते हैं और वे सभी मनुष्यलोक के एकदेश में व्याप्त हैं। टीका-जिस प्रकार गर्भज मनुष्यों के सामान्यरूप से १०१ भेद कथन किए गए हैं, उसी प्रकार संमूछिम मनुष्यों के भी १०१ ही भेद माने गए हैं। तात्पर्य यह है कि, जैसे-१५ कर्मभूमिक, ३० अकर्मभूमिक और ५६ अन्तरद्वीपक, इस प्रकार कुल १०१ भेद होते हैं, उसी भांति मनुष्यों के अवयवों में उत्पन्न होने वाले संमूच्छिम मनुष्यों के भी उतने अर्थात् १०१ ही भेद माने गए हैं। गर्भज मनुष्यों के जिन-जिन अवयवों में अंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी अवगाहना वाले संमूछिम जीवों की उत्पत्ति होती है उन सब स्थानों का उल्लेख आगमों में इस प्रकार किया गया है "उच्चारेसु वा, पासवणेसु वा, खेलेसु वा, सिंघाणेसु वा, वंतेसु वा, पित्तेसु वा, पूएसु वा, सोणिएसु वा, सुक्केसु वा, सुक्कपुग्गलपरिसाडेसु वा, विगयकडेवरेसु वा, थीपुरिससंजोएसु वा, गामनिद्धमणेसु वा, सव्वेसु चेव असुइठाणेसु"। [प्रज्ञाप. पद १. सूत्र ३६.] उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४५२] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं

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