Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 420
________________ और स्पर्श से, वा-तथा, संठाणादेसओ-संस्थान के आदेश से, अवि-समुच्चयार्थक है, सहस्ससो-हजारों, विहाणाइं-विधान अर्थात् भेद होते हैं। मूलार्थ-वनस्पतिकाय के जीवों के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श तथा संस्थान के आदेश से हजारों अवान्तर भेद होते हैं। टीका-वनस्पतिकाय के पूर्वोक्त जितने अवान्तर भेद बताए गए हैं उनका यदि वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थानादि के तारतम्य से विचार करें तो उनके हजारों भेद हो जाते हैं, परन्तु यहां पर तो उनका सामान्यरूप से निर्देशमात्र ही किया गया है। त्रसकाय-निरूपण इस प्रकार स्थावर जीवों का निरूपण करके अब त्रस जीवों का वर्णन करते हैं इच्चए थावरा तिविहा, समासेण वियाहिया । इत्तो उ तसे तिविहे, वुच्छामि अणुपुव्वसो ॥ १०६ ॥ इत्येते स्थावरास्त्रिविधाः, समासेन व्याख्याताः । इतस्तु त्रसान् त्रिविधान्, वक्ष्याम्यानुपूर्व्या ॥ १०६ ॥ पदार्थान्वयः-इच्चेए-इस प्रकार यह, तिविहा-तीन प्रकार के, थावरा-स्थावर, समासेण-संक्षेप से, वियाहिया-वर्णन किए गए हैं, इत्तो-इससे आगे, उ-पुनः, तिविहे-तीन प्रकार के, तसे-त्रसों के भेदों को, अणुपुव्यसो-अनुक्रम से, वुच्छामि-कहूंगा। ___मूलार्थ हे शिष्य ! इस प्रकार से यह तीनों स्थावरों का संक्षेप से वर्णन किया गया है, अब इसके आगे मैं तीन प्रकार के त्रसों को अनुक्रम से कहूंगा। ___टीका-आचार्य कहते हैं कि हे शिष्य ! पृथिवी, जल और वनस्पति रूप तीनों स्थावरों का तो यह संक्षेप से स्वरूप वर्णन कर दिया गया है, अब इसके अनन्तर मैं तीन प्रकार के त्रसों के स्वरूप का वर्णन करता हूं, तुम सावधान होकर श्रवण करो। ___ अब प्रसों के विषय में ही कहते हैं, यथा तेऊ वाऊ य बोधव्वा, उराला य तसा तहा । इच्चेए तसा तिविहा, तेसिं भेए सुणेह मे ॥ १०७ ॥ तेजांसि वायवश्च बोद्धव्याः, उदाराश्च त्रसास्तथा । इत्येते त्रसास्त्रिविधाः, तेषां भेदान् श्रृणुत मे ॥ १०७ ॥ पदार्थान्वयः-तेऊ-तेजस्काय, वाऊ-वायुकाय, य-और, उराला-प्रधान, तहा-तथा, तसा-त्रसकाय, इच्चए-इस प्रकार यह, तिविहा-तीन प्रकार के, तसा-त्रस हैं, तेसिं-उनके, भेए-भेदों को, मे-मुझसे, सुणेह-श्रवण करो। .. ___ मूलार्थ-हे शिष्यो ! अग्निकाय, वायुकाय और प्रधान त्रस, ये तीन प्रकार के त्रस जीव हैं, अब तुम इनके उत्तर भेदों को मुझसे श्रवण करो। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४११] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं

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