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टीका-प्रस्तुत गाथा में अग्निकाय के जीव को अपनी त्यागी हुई काया में फिर से आने के लिए कम से कम और अधिक से अधिक जितना समय लगता है उस समय का निर्देश किया गया है। वह समय जघन्य अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट अनन्त काल का है, यही इसका अन्तर-काल है। दो समयों से अधिक और एक घड़ी से कम समय को अन्तर्मुहूर्त कहते हैं। अब प्रकारान्तर से इसके अवान्तर भेदों का निरूपण करते हैं
एएसिं वण्णओ चेव, गंधओ रसफासओ । संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥ ११६ ॥ एतेषां वर्णतश्चैव, गन्धतो रसस्पर्शतः ।
संस्थानादेशतो वाऽपि, विधानानि सहस्रशः ॥ ११६ ॥ पदार्थान्वयः-एएसिं-इन अग्निकाय के जीवों के, वण्णओ-वर्ण से, च-और, गंधओ-गन्ध से, रसफासओ-रस और स्पर्श से, वा-तथा, संठाणादेसओ-संस्थान के आदेश से, सहस्ससो-हजारों, विहाणाई-भेद होते हैं, एव-अवि-समुच्चय में है।
मूलार्थ-अग्निकाय जीव के वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान के आदेश से तारतम्य की दृष्टि से हजारों नाना प्रकार के अवान्तर भेद हो जाते हैं। टीका-वर्ण, गन्ध और रसादि के तारतम्य से अग्निकाय के जीवों के हजारों उपभेद बन जाते हैं।
__ वायु-काय-निरूपण ___ इस प्रकार अग्निकाय का निरूपण करने के अनन्तर अब वायुकाय के विषय में कहते हैं, यथा
दुविहा वाउजीवा उ, सुहुमा बायरा तहा । पज्जत्तमपज्जत्ता, एवमेव दुहा पुणो ॥ ११७ ॥
द्विविधा वायुजीवास्तु, सूक्ष्मा बादरास्तथा ।
पर्याप्ता अपर्याप्ताः, एवमेते द्विधा पुनः ॥ ११७ ॥ पदार्थान्वयः-दुविहा-दो प्रकार के, वाउजीवा-वायुकाय के जीव हैं, सुहुमा-सूक्ष्म, तहा-तथा, बायरा-बादर, उ-पुनः, पज्जत्तमपज्जत्ता-पर्याप्त और अपर्याप्त, एवमेव-इसी प्रकार से, पुणो-फिर, दुहा-दो प्रकार के हैं।
मूलार्थ-वायुकाय के दो भेद हैं सूक्ष्म और बादर, फिर इनमें भी प्रत्येक के पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो-दो भेद हैं।
टीका-वायुकाय के चार भेद हैं-सूक्ष्म-पर्याप्त, सूक्ष्म-अपर्याप्त, बादर-पर्याप्त और बादर-अपर्याप्त। अब इनके उत्तर भेदों का वर्णन करते हैं
बायरा जे उ पज्जत्ता, पंचहा ते पकित्तिया ।। उक्कलिया मडलिया, घणगुजा सुद्धवाया य ॥ ११८ ॥
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४१६] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं