Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 424
________________ मूलार्थ-अग्निकाय के जीवों की जघन्य आयु-स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट तीन अहोरात्र की बताई गई है। टोका-इस गाथा में अग्निकाय के जीवों की आयु-स्थिति का वर्णन किया गया है। अग्निकाय के जीवों की उत्कृष्ट आयु तीन अहोरात्र की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है। तात्पर्य यह है कि अग्निकाय का जीव अधिक से अधिक तीन दिन और तीन रात्रि तक तथा जघन्य अन्तर्मुहूर्त्तमात्र भवस्थिति कर सकता है। अब इनकी कायस्थिति बताते हैं, यथा असंखकालमुक्कोसा, अंतोमुहुत्तं जहन्निया । कायठिई तेऊणं, तं कायं तु अमुंचओ ॥ ११४ ॥ असङ्ख्यकालमुत्कृष्टा, अन्तर्मुहूर्तं जघन्यका । कायस्थितिस्तेजसाम्, तं कायन्त्वमुञ्चताम् ॥ ११४ ॥ पदार्थान्वयः-तं कायं-उस काय को, तु-फिर, अमुंचओ-न छोड़ते हुए, तेऊणं-तेजस्काय के जीवों की, कायठिई-कायस्थिति, उक्कोसा-उत्कृष्ट, असंखकालं-असंख्यातकाल की-और, जहन्निया-जघन्य, अंतोमुहुत्तं-अन्तर्मुहूर्त की होती है। मूलार्थ-अपनी काया को न छोड़ते हुए अग्निकाय के जीवों की उत्कृष्ट कायस्थिति असंख्यकाल की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की होती है, अर्थात् इतना समय वह जीव उसी काय में जन्मता और मरता रहता है। .. टीका-अग्निकाय का जीव यदि अग्निकाय में ही जन्म मरण करता रहे तो उसकी यह अवस्था कम से कम अन्तर्मुहूर्त और अधिक से अधिक असंख्यकाल-पर्यन्त है। इसके बाद वह दूसरी काया में चला जाता है, इसी का नाम कायस्थिति है। यह स्थिति की अपेक्षा से अग्निकाय की सादि-सान्तता कथन की गई है। अब अन्तर के विषय में कहते हैं अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । विजढम्मि सए काए, तेऊजीवाण अंतरं ॥ ११५ ॥ अनन्तकालमुत्कृष्टम्, अन्तर्मुहूर्तं जघन्यकम् । वित्यक्ते स्वके काये, तेजोजीवानामन्तरम् ॥ ११५ ॥ पदार्थान्वयः-तेऊजीवाण-तेजस्काय के जीवों के, सए काए-स्वकाय को, विजढम्मि-छोड़ने पर, जहन्नयं-जघन्य, अंतोमुहुत्तं-अन्तर्मुहूर्त और, उक्कोसं-उत्कृष्ट, अणंतकालं-अनन्तकाल का, .. अंतरं-अन्तर हो जाता है। मूलार्थ-अग्निकाय के जीवों का स्वकाय के छोड़ने से लेकर पुनः स्वकाय में आने तक, जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त्तमात्र का और उत्कृष्ट अनन्तकाल का अपेक्षित है। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४१५] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं की गई ह।

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