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बादरा ये तु पर्याप्ताः, पञ्चधा ते प्रकीर्तिताः ।
उत्कलिका मण्डलिका, घनगुञ्जाः शुद्धवाताश्च ॥ ११८ ॥ पदार्थान्वयः-बायरा-बादर, जे-जो, पज्जत्ता-पर्याप्त हैं, उ-फिर, ते-वे, पंचहा-पांच प्रकार के, पकित्तिया-कथन किए गए हैं, उक्कलिया-उत्कलिक-ठहर-ठहर कर चलने वाली वायु, मंडलिया-मांडलिक-बातोली रूप वायु, घण-घनवायु-रत्नप्रभा आदि के नीचे की, गुंजा-गुंजा वायु अर्थात् गुंजार शब्द करने वाली, य-और, सुद्धवाया-शुद्ध वायु।
मूलार्थ-बादर-पर्याप्त वायु पांच प्रकार की कही गई है-उत्कलिका वायु, मंडलिका वायु, घन वायु, गुंजा वायु और शुद्ध वायु तथा इसके और भेद भी उपलक्षण से जान लेने चाहिएं।
टीका-बादर-पर्याप्त वायु के पांच भेद हैं। यथा१. उत्कलिका वायु-जो ठहर-ठहर कर चले। २. मंडलिका वायु-जो चक्र खाती हुई चले। ३. घन वायु-रत्नप्रभा आदि पृथिवी के नीचे अथवा विमानों के नीचे की घनरूप वायु। ४. गुंजा वायु-जो चलती हुई ध्वनि करे।
५. शुद्ध वायु-जो कि उक्त गुणों से रहित और मन्द-मन्द चलने वाली होती है, उसे शुद्ध वायु कहते हैं।
इन भेदों के अतिरिक्त तारतम्य को लेकर वायु के और बहुत से उपभेद हो सकते हैं, परन्तु संक्षेप से मुख्य भेद तो उक्त पांच ही हैं। अब फिर कहते हैं
संवट्टगवाया य, णेगहा एवमायओ। एगविहमनाणत्ता, सुहुमा तत्थ वियाहिया ॥ ११९ ॥
संवर्तकवायवश्च, अनेकधा एवमादयः ।
एकविधा अनानात्वाः, सूक्ष्मास्तत्र व्याख्याताः ॥ ११९ ॥ पदार्थान्वयः-संवट्टग-संवर्त वायु अर्थात् जो बाहर के क्षेत्र से तृणादि को लाकर विवक्षित क्षेत्र में फेंकती है, एवमायओ-इत्यादि, णेगहा-अनेक भेद वायु के हैं, अनाणत्ता-नाना प्रकार के भेदों से रहित, एगविहं-केवल एक ही प्रकार से, तत्थ-सूक्ष्म और बादर वायु में, सुहुमा-सूक्ष्म वायु, वियाहिया-कथन की गई है। ___ मूलार्थ-पूर्वोक्त भेदों के अतिरिक्त संवर्तक वायु इत्यादि वायु के. अनेक भेद कहे गए हैं, सूक्ष्म वायु नाना प्रकार के भेदों से रहित केवल एक ही प्रकार की कही गई है।
टीका-प्रस्तुत गाथा के अर्द्ध भाग में तो वायुकाय के संवर्त नामक अन्य भेद का उल्लेख किया गया है और शेष अर्द्ध भाग में सूक्ष्म वायुकाय को अवान्तर भेदरहित बताया गया है। जो वायु बाहर पड़े हुए तृण आदि को उड़ाकर विवक्षित क्षेत्र में लाकर फेंक देती है, उसे संवर्तक वायु कहते हैं। इस
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४१७] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं