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इन्द्रगोपकादिकाः, अनेकविधा एवमादयः ।
लोकैकदेशे ते सर्वे, न सर्वत्र व्याख्याताः ॥ १३९ ॥ पदार्थान्वयः-कुंथु-कुंथुआ, पिवीलि-पिपीलिका-कीड़ी, उड्डसा-उश, उक्कलुद्देहियाउपदेहिक, तहा-तथा, तणहारा-तृणहारक, य-और, कट्ठहारा-काष्ठहारक, मालूगा-मालुगा और, पत्तहारगा-पत्राहारक, कप्पासट्ठिम्मि जाया-कपास और अस्थि में उत्पन्न होने वाले जीव, तिंदुगा-तिन्दुक, तउस-त्रपुष, मिंजगा-मिंजग, य-तथा, सयावरी-शतावरी, य-और, गुम्मी-गुल्मी-जूका-जूं आदि, इंदगाइया-षट्पदी वा इन्द्रकायिक, बोधव्वा-जानने चाहिएं, इंदगोवगमाईया-इंद्रगोप आदि, एवमायओ-इत्यादि, अणेगविहा-अनेक प्रकार के त्रीन्द्रिय जीव, वियाहिया-कहे गए हैं, ते सव्वे-वे सब, लोगेगदेसे-लोक के एक देश में रहते हैं, न सव्वत्थ-सर्वत्र नहीं।
___ मूलार्थ-कुन्थु, पिपीलिका, उइंसा, उपदेहिका, तृणहारक, काष्ठहारक, मालुका, पत्राहारक तथा कार्यासिक, अस्थिजात, तिन्दुक, त्रपुष, मिंजग, शतावरी, गुल्मी, इंद्रकायिक, तथा इन्द्रगोपक आदि अनेक प्रकार के तीन इन्द्रियों वाले जीव प्रतिपादन किए गए हैं। वे जीवलोक के एक देश में ही रहते हैं, सर्वत्र नहीं।
टीका-इस गाथात्रय में तीन इन्द्रियों वाले जीवों के भेद और उनकी एकदेशता का वर्णन किया गया है, जो कि द्वीन्द्रिय जीवों की तरह ही समझ लेने चाहिएं।
कुन्थु-यह एक अत्यन्त सूक्ष्म जीव होता है, जोकि चलता-फिरता ही दृष्टिगोचर हो सकता है।
पिपीलिका-चींटी आदि। उपर्युक्त गाथाओं में निर्दिष्ट अनेक नाम तो प्रसिद्ध हैं किन्तु अनेक अप्रसिद्ध हैं। जिन जीवों की स्पर्श, रसना और घ्राण ये तीन इन्द्रियां विद्यमान हों उनको त्रीन्द्रिय जीव समझ लेना चाहिए। ये सब त्रीन्द्रिय जाति के जीव लोक के एक देश में ही स्थित हैं। सूक्ष्म वायु-काय की तरह इनकी सर्व लोक में स्थिति नहीं है। अब इनकी अनादि-अनन्तता और सादि-सान्तता का वर्णन करते हैं, यथा
संतई पप्प णाईया, अपज्जवसियावि य । ठिइं पडुच्च साईया, सपज्जवसियावि य ॥ १४० ॥
सन्ततिं प्राप्यानादिकाः, अपर्यवसिता अपि च ।
स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः, सपर्यवसिता अपि च ॥ १४० ॥ पदार्थान्वयः-संतई-सन्तान की, पप्प-अपेक्षा से, अणाईया-अनादि, य-और, अपज्जवसियावि-अपर्यवसित भी हैं, ठिई पडुच्च-स्थिति की अपेक्षा से, साईया-सादि, य-तथा, सपज्जवसियावि-सपर्यवसित भी हैं। ___ मूलार्थ-ये सब त्रीन्द्रिय जीव प्रवाह की अपेक्षा से तो अनादि और अनन्त हैं, किन्तु स्थिति की अपेक्षा से आदि एवं अन्त वाले हैं।
टीका-गाथा का भावार्थ स्पष्ट ही है।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४२६] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं