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पदार्थान्वयः-एएसिं-इन द्वीन्द्रिय जीवों के, वण्णओ-वर्ण से, च-और, गंधओ-गन्ध से, रसफासओ-रस और स्पर्श से, वा-तथा, संठाणादेसओवि-संस्थान के आदेश से भी, सहस्ससो-अनेकानेक, विहाणाइं-भेद हो जाते हैं।
मूलार्थ-इन द्वीन्द्रिय जीवों के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श तथा संस्थान की अपेक्षा से तारतम्य को लेकर अनेकानेक भेद हो जाते हैं।
टीका-द्वीन्द्रिय जीवों के वर्ण, गन्ध, रस और गन्धादि के तारतम्य से हजारों भेद हो जाते हैं। अब तीन इन्द्रियों वाले जीवों का वर्णन करते हैं, यथा
तेइंदिया उ जे जीवा, दविहा ते पकित्तिया ।
पज्जत्तमपज्जत्ता, तेसिं भेए सुणेह मे ॥ १३६ ॥ .. त्रीन्द्रियास्तु ये जीवाः, द्विविधास्ते प्रकीर्तिताः ।
पर्याप्ता अपर्याप्ताः, तेषां भेदाञ्च्छृणुत मे ॥ १३६ ॥ पदार्थान्वयः-उ-पुनः, तेइंदिया-तीन इन्द्रियों वाले, जे जीवा-जो जीव हैं, ते-वे, दुविहा-दो प्रकार के, पकित्तिया-कथन किए गए हैं, पज्जत्तमपज्जत्ता-पर्याप्त और अपर्याप्त, तेसिं-उनके, भेए-भेदों को, मे-मुझसे, सुणेह-श्रवण करो।।
मूलार्थ-तीन इन्द्रियों वाले जो जीव हैं वे भी दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त। अब मुझसे इनके उपभेदों को सुनो।
टीका-आचार्य कहते हैं कि पर्याप्त और अपर्याप्त, इस तरह त्रीन्द्रिय जीव भी दो प्रकार के हैं, और अब तुम मुझसे इनके भेदों का श्रवण करो, अर्थात् त्रीन्द्रिय जीवों के जितने उपभेद हैं, अब उनका निरूपण करता हूं, तुम एकाग्र मन से सुनो। अब उक्त प्रतिज्ञा के अनुसार त्रीन्द्रिय जीवों के भेद बताते हैं, यथा
कंथपिवीलिउड्डंसा, उक्कलुद्देहिया तहा । तणहारा कट्ठहारा य, मालूगा पत्तहारगा ॥ १३७ ॥ कप्पासट्ठिम्मि जाया, तिंदुगा तउसमिंजगा । सयावरी य गुम्मी य, बोधव्वा इंदगाइया ॥ १३८ ॥ इंदगोवगमाईया, णेगहा एवमायओ । लोगेगदेसे ते सव्वे, न सव्वत्थ वियाहिया ॥ १३९ ॥
कुन्थुपिपील्युइंशाः, उत्कलिकोपदेहिकास्तथा । तृणहाराः काष्ठहाराश्च, मालूकाः पत्रहारकाः ॥ १३७ ॥ कासास्थिजाताः, तिन्दुकाः त्रपुषमिञ्जकाः । शतावरी च गुल्मी च, बोद्धव्या इन्द्रकायिकाः ॥ १३८ ॥
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४२५] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं