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टीका-आचार्य कहते हैं कि त्रसों के भी तीन भेद हैं-अग्निकाय, वायुकाय और प्रधान त्रस अर्थात् एकेन्द्रिय की अपेक्षा से प्रधान अर्थात् उत्कृष्ट जो कि त्रस-नाम-कर्म के उदय से उत्पन्न होते हैं।
तात्पर्य यह है कि अग्नि, वायु और द्वींद्रियादि ये तीनों त्रस जीव माने जाते हैं, यहां शिष्य के लिए श्रवण करने का जो आदेश है उसका तात्पर्य एकाग्रचित्त से विषय के अवधारण के लिए है, अर्थात् इस विषय को एकाग्रचित्त से श्रवण करना चाहिए।
यद्यपि तेज अर्थात् अग्नि और वायु ये दोनों भी स्थावर-नाम-कर्मोदय से उत्पन्न होने के कारण स्थावरों की ही गणना में आते हैं, तथापि गति करने वाले अर्थात् एक देश से दूसरे प्रदेश में जाने वाले जीव को त्रस कहते हैं। 'त्रस्यन्ति-देशाद्देशान्तरं संक्रामन्ति-इति त्रसाः' इस मान्यता के अनुसार अग्नि और वायु को स्थावर न मानकर त्रस ही माना गया है।
आगम में दो प्रकार के त्रस माने गए हैं, एक गतित्रस, दूसरे लब्धित्रस। लब्धित्रस तो द्वींद्रियादि जीव हैं और गतित्रस अग्नि एवं वायु को माना गया है, क्योंकि इनकी गति प्रत्यक्षसिद्ध है, अर्थात् अग्निज्वाला का ऊर्ध्व-गमन और वायु का तिर्यग्गमन, चक्षु और स्पर्श इन्द्रिय से प्रत्यक्ष ही है।
शंका-जल में भी तो गति है, अर्थात् वह भी एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में गमन करता हुआ देखा जाता है, फिर जल को त्रस क्यों नहीं माना गया ?
समाधान-जल की गति में स्वतन्त्रता नहीं है, वह तो केवल निम्न स्थान की ओर गमन करता है और उसको यदि किसी घटादि-यन्त्र में रख दिया जाए तो वहां उसकी मंति निरुद्ध हो जाती है, परन्तु अग्नि और वायु में ऐसा नहीं है। अग्नि अथवा वायु किसी स्थान पर भी क्यों न हों उनमें गति बराबर होती रहती है, अर्थात् अग्नि-शिखा की ऊर्ध्व और वायु की तिर्यग्गति में कोई प्रतिबन्धक या प्रेरक नहीं हो सकता, इसलिए इनको गति-त्रस के भेद में परिगणित किया गया है। अब तेजस्काय के सम्बन्ध में कहते हैं
दुविहा तेऊजीवा उ, सुहुमा बायरा तहा । पज्जत्तमपज्जत्ता, एवमेव दुहा पुणो ॥ १०८ ॥ द्विविधास्तेजोजीवास्तु, सूक्ष्मा बादरास्तथा ।
पर्याप्ता अपर्याप्ताः, एवमेते द्विधा पुनः ॥ १०८ ॥ पदार्थान्वयः-दुविहा-दो प्रकार के, तेऊ-तेजस्काय के, जीवा-जीव हैं, उ-फिर, सुहमा-सूक्ष्म, तहा-तथा, बायरा-बादर, एवमेव-उसी प्रकार, पुणो-फिर, दुहा-दो प्रकार के हैं, पज्जत्तमपज्जत्ता-पर्याप्त और अपर्याप्त भेद से। ___ मूलार्थ-तेजस्काय के सूक्ष्म और बादर ये दो भेद हैं, तथा ये दोनों भी पर्याप्त और अपर्याप्त भेद से दो-दो प्रकार के कथन किए गए हैं।
___टीका-तेजस्काय के कुल चार भेद हैं-सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त अर्थात् सूक्ष्म-पर्याप्त, सूक्ष्म-अपर्याप्त, बादर-पर्याप्त और बादर-अपर्याप्त। इस प्रकार से चार भेद तेजस्काय के हो जाते हैं।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ४१२] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं