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इसी प्रकार चारित्रमोहनीय के दो भेद हैं- (१) कषायमोहनीय और (२) नोकषायमोहनीय।
कष का अर्थ है जन्ममरणरूप संसार, उसकी आय अर्थात् प्राप्ति जिससे हो उसे कषायं कहते हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ, इनकी कषाय संज्ञा है । कषायों के साथ ही जिनका उदय हो, अथवा कषायों को जो उत्तेजित करने वाले हों उनको नोकषाय कहते हैं। तात्पर्य यह है कि हास्यादि नव को नोकषाय माना गया है । "
अब इस प्रस्तुत विषय का वर्णन शास्त्रकार स्वयं करते हैं। इसमें भी प्रथम दर्शनमोहनीय के तीन भेदों का वर्णन करते हुए कहते हैं
सम्मत्तं चेव मिच्छत्तं,
सम्मामिच्छत्तमेव य । याओ तिन्नि पयडीओ, मोहणिज्जस्स दंसणे ॥ ९ ॥
सम्यक्त्वं चैव मिथ्यात्वं सम्यङ् मिथ्यात्वमेव च । एतास्तिस्रः प्रकृतयः, मोहनीयस्य दर्शने ॥ ९ ॥
पदार्थान्वयः - सम्मत्तं - सम्यक्त्व, मिच्छत्तं - मिथ्यात्व एवं उसी प्रकार, सम्मामिच्छत्तं सम्यक्त्व और मिथ्यात्व, य-पुनः, एयाओ-ये, तिन्नि- तीनों, पयडीओ - प्रकृतियां, मोहणिज्जस्स - मोहनीय कर्म की, दंसणे - दर्शन में, चेव - पादपूर्ति में है ।
मूलार्थ - सम्यक्त्वमोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय और सम्यक्त्वमिथ्यात्व - मिश्रमोहनीय ये तीनों प्रकृतियां मोहनीय कर्म की दर्शनविषयक होती हैं अर्थात् दर्शनमोहनीय कर्म की ये तीन प्रकृतियां अर्थात् उत्तर भेद हैं।
टीका - तत्त्वार्थ- श्रद्धान को दर्शन कहते हैं, उसमें मोह उत्पन्न करने वाले कर्म को दर्शन- मोहनीय कहा गया है। उसके सम्यक्त्वमोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय और सम्यक्त्वमिथ्यात्वमोहनीय - मिश्र - मोहनीय-ये तीन भेद हैं।
१. सम्यक्त्वमोहनीय - जिस कर्म के प्रभाव से इस आत्मा को जीवाजीवादि पदार्थों में श्रद्धा उत्पन्न हो अर्थात् तत्त्वविषयिणी रुचि उत्पन्न हो उसे सम्यक्त्व - मोहनीय कहते हैं।
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शंका- जबकि यह कर्म मोहरूप है और आत्मा के दर्शनगुण का विघातक माना गया है, तब आवरणस्वरूप इस कर्म को तत्त्वविषयक श्रद्धा का उत्पादक किस प्रकार से माना जा सकता है? तथा 'सम्यक्त्वमोहनीय" इस वाक्य का सीधा और स्पष्ट अर्थ तो यही प्रतीत होता है कि जो सम्यक्त्व में
१. इस विषय का एक प्राचीन श्लोक भी देखने में आता है। यथा
कषायसहवर्तित्वात्,
कषायप्रेरणादपि ।
हास्यादिनवकस्योक्ता, नोकषाय- कषायता ॥ १ ॥
हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद, ये हास्यादिनवक हैं।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २९४] कम्मप्पयडी तेत्तीसइमं अज्झयणं