Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 399
________________ उत्सेधो यस्य यो भवति, भवे चरमे तु । तृतीयभागहीना ततश्च, सिद्धानामवगाहना भवेत् ॥ ६४ ॥ पदार्थान्वयः-उस्सेहो-ऊंचाई, जस्स-जिस जीव का, जो-जो, होइ-होती है, चरिमम्मि-चरम, भवम्मि-भव में, य-फिर, तत्तो-उससे, तिभागहीणो-तीसरा भाग न्यून, सिद्धाण-सिद्धों की, ओगाहणा-अवगाहना, भवे-होती है। मूलार्थ-यावन्मात्र अन्तिम शरीर में जितनी अवगाहना होती है, उससे तृतीय भाग न्यून सिद्धों की अवगाहना कही गई है। टीका-यहां पर इतना ध्यान रहे कि सिद्धों की यह अवगाहना, आकाश में ठहरे हुए आत्मा के जो असंख्यात प्रदेश हैं उनकी अपेक्षा से कथन की गई है। यों तो सिद्ध अमूर्त हैं, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, रूप आदि से रहित हैं तथा अवगाहना में जो चरम शरीर का तृतीय भाग न्यून किया गया है उसका कारण यह है कि शरीर के जो विवर-छिद्र हैं, वे घनरूप हो जाते हैं। इसलिए तृतीय भाग न्यून अवगाहना मानी गई है। अब काल की अपेक्षा से सिद्धों का वर्णन किया जाता है, यथा एगत्तेण साइया, अपज्जवसियावि य । पहत्तेण अणाइया, अपज्जवसियावि य ॥६५॥ एकत्वेन सादिकाः, अपर्यवसिता अपि च । पृथक्त्वेनानादिकाः, अपर्यवसिता अपि च ॥ ६५ ॥ पदार्थान्वयः-एगत्तेण-एक सिद्ध की अपेक्षा से, साइया-सादि, य-और, अपज्जवसियावि-अपर्यवसित हैं, पुहुत्तेण-बहुतों की अपेक्षा से, अणाइया-अनादि, अपज्जवसिया-अपर्यवसित हैं, अवि-य-अपि-च-समुच्चयार्थक हैं। ___ मूलार्थ-एक सिद्ध की अपेक्षा से सिद्ध, सादि-अपर्यवसित हैं और बहुतों की अपेक्षा से अनादि-अपर्यवसित हैं। टीका-इस गाथा में सिद्धों का काल-सापेक्ष वर्णन किया गया है। तथाहि-जिन आत्माओं ने जिस समय कर्म-निर्मुक्त होकर सिद्धभाव को प्राप्त किया, उस समय की अपेक्षा से सिद्ध की आदि तो सिद्ध हो गई, परन्तु फिर उसका कभी सिद्ध काल का अन्त न होने से वह अपर्यवसित अर्थात् अनन्त पद वाला है। तात्पर्य यह है कि इस दृष्टि से सिद्धपद सादि-अनन्त है और बहुत से सिद्धों की अपेक्षा से वह अनादि-अनन्त पद वाला है, अर्थात् जिस प्रकार यह संसार प्रवाह से अनादि-अनन्त है, उसी प्रकार प्रवाह रूप से सिद्धपद भी अनादि-अनन्त है। तात्पर्य यह है कि ऐसा कोई समय नहीं, जब कि सिद्ध नहीं थे और ऐसा भी कोई समय नहीं, जब कि सिद्ध नहीं होंगे, अतः शाश्वत रूप होने से सिद्धपद को अनादि और अनन्त कहा गया है। इसी दृष्टि से जैन-धर्म में परमेश्वरपद को अनादि-अनन्त माना है, अत: जैन-धर्म में परमेश्वर और परमात्मा आदि सिद्धों के ही अपर नाम स्वीकार किए गए हैं। अब सिद्धों का स्वरूप-वर्णन करते हैं, यथा उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३९०] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं

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