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में सूक्ष्म पृथिवीकाय के उत्तर भेद नहीं है। तात्पर्य यह है कि सूक्ष्म पृथिवीकाय को भेद-रहित माना गया है।
'अनाणत्ता' की व्युत्पत्ति वृत्तिकार ने इस प्रकार की है-'यतोऽविद्यमानं नानात्वं नानाभावो भेदो येषां तेऽमी अनानात्वाः सूक्ष्माः'-अर्थात् जो नानात्व अर्थात् अनेक प्रकार के भेदों से रहित हो उसको अनानात्व कहते हैं, वही सूक्ष्म पृथिवीकाय है। अब सूक्ष्म और बादर पृथिवी-काय का क्षेत्र सापेक्ष्य वर्णन करते हैं, यथा
सुहुमा सव्वलोगम्मि, लोगदेसे य बायरा । इत्तो कालविभागं तु, वुच्छं तेसिं चउव्विहं ॥ ७८ ॥
सूक्ष्माः सर्वलोके, लोकदेशे च बादराः ।
इतः कालविभागं तु, वक्ष्ये तेषां चतुर्विधम् ॥ ७८ ॥ पदार्थान्वयः-सुहुमा-सूक्ष्म, सव्व-सर्व, लोगम्मि-लोक में व्याप्त हैं, य-और, लोगदेसे-लोक के देशमात्र में, बायरा-बादर स्थित हैं, इत्तो-इसके अनन्तर, तेसिं-उनके, कालविभागं-कालविभाग को, तु-फिर, चउव्विहं-चार प्रकार से, वुच्छं-कहूंगा या कहता हूं।
मूलार्थ-सूक्ष्म पृथिवीकाय के जीव सर्व लोक में व्याप्त हैं और बादर-लोक के एक देश में (रत्नप्रभा आदि पृथिवी में) स्थित हैं। इसके अनन्तर मैं इनके काल-विभाग को चार प्रकार से कहूंगा या कहता हूं, अर्थात् अब इनका काल की अपेक्षा से वर्णन किया जाएगा। __टीका-इस गाथा में सूक्ष्म और बादर पृथिवीकाय की क्षेत्र-स्थिति का दिग्दर्शन कराया गया है, तथा इनकी कालस्थिति के वर्णन की प्रतिज्ञा की गई है। तात्पर्य यह है कि सूक्ष्म पृथिवी के जीव तो सर्व लोक में व्याप्त हैं और बादर पृथिवी के जीव रत्नप्रभा आदि पृथिवियों में स्थित हैं, यह तो इनका क्षेत्र-विभाग है और काल विभाग से इनका वर्णन आगे किया जाएगा। यही इस गाथा का भावार्थ है। अब उक्त प्रतिज्ञा के अनुसार ही वर्णन करते हैं, यथा
संतई पप्प णाईया, अपज्जवसियावि य ।
ठिइं पडुच्च साईया, सपज्जवसियावि य ॥ ७९ ॥ - संततिं प्राप्यानादिकाः, अपर्यवसिता अपि च ।
स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः, सपर्यवसिता अपि च ॥ ७९ ॥ पदार्थान्वयः-संतइं-प्रवाह की, पप्प-अपेक्षा से, णाईया-अनादि, य-और, अपज्जवसिया-अपर्यवसित है, अवि-अपितु, ठिइं-स्थिति की, पडुच्च-अपेक्षा, साईया-सादि, सपज्जवसिया-सपर्यवसित है, अवि य-अपिच अर्थात् प्राग्वत् । ___मूलार्थ-पृथिवीकाय सन्तति की अपेक्षा से अनादि-अपर्यवसित है और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सपर्यवसित है।
टीका-इस गाथा की व्याख्या पूर्व में आई हुई बारहवीं गाथा के समान ही समझ लेनी चाहिए,
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३९७] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं