Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 409
________________ एतेषां वर्णतश्चैव, गन्धतो रसस्पर्शतः । संस्थानादेशतो वापि, विधानानि सहस्रशः ॥ ८३ ॥ पदार्थान्वयः-एएसिं-इन पृथिवी के जीवों के, वण्णओ-वर्ण से, च-पुनः एव अवधारण में, गंधओ-गन्ध से, रस-फासओ-रस और स्पर्श से, वा-अथवा, संठाणादेसओ-संस्थान के आदेश से, अवि-अपि-समुच्चय में, सहस्ससो-सहस्रों, विहाणाइं-विधान अर्थात् भेद होते हैं। ___मूलार्थ-पृथिवीकाय के जीवों के वर्ण से, गन्ध से, रस और स्पर्श से, तथा संस्थान के आदेश से सहस्रों भेद होते हैं। टीका-पूर्वोक्त पृथिवीकाय के जीवों के वर्ण की अपेक्षा, गन्ध की अपेक्षा, रस की अपेक्षा, स्पर्श की अपेक्षा और संस्थान की अपेक्षा से तारतम्य को लेकर सहस्रों भेद हो जाते हैं, अर्थात् वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श और संस्थान की न्यूनाधिकता से इनके असंख्यात भेद हो जाते हैं, परन्तु उनमें जो मुख्य हैं उनका ही निरूपण ऊपर किया गया है। अब सूत्रकार अप्काय का निरूपण करते हैं, यथा दुविहा आउजीवा उ, सुहमा बायरा तहा । पज्जत्तमपज्जत्ता, एवमेव दुहा पुणो ॥ ८४ ॥ द्विविधा अब्जीवास्तु, सूक्ष्मा बादरास्तथाः । पर्याप्ता अपर्याप्ताः, एवमेव द्विधा पुनः ॥ ८४ ॥ पदार्थान्वयः-आउजीवा-अप्काय के जीव, उ-पुनः, दुविहा-दो प्रकार के हैं, सुहुमा-सूक्ष्म, तहा-तथा, बायरा-बादर, पज्जत्तं-पर्याप्त और, अपज्जत्ता-अपर्याप्त, एवमेव-इसी प्रकार, पुणी-फिर, उनके, दुहा-दो भेद जानने चाहिए। मूलार्थ-अप्काय के जीवों के दो भेद हैं-सूक्ष्म और बादर। फिर प्रत्येक के पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो भेद जानने चाहिएं। टीका-जिस प्रकार पृथिवीकाय के भेद वर्णन किए गए हैं उसी प्रकार जलकाय के जीवों के भी मुख्य चार ही भेद हैं, यथा-सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त, अर्थात् १. सूक्ष्म-पर्याप्त, २. सूक्ष्म-अपर्याप्त, ३. बादर-पर्याप्त और ४. बादर-अपर्याप्त। अब बादर काय के विषय में कहते हैं, यथा बायरा जे उ पज्जत्ता, पंचहा ते पकित्तिया । सुद्धोदए य उस्से, हरतणू महिया हिमे ॥ ८५ ॥ बादरा ये तु पर्याप्ताः, पञ्चधा ते प्रकीर्तिताः । शुद्धोदकञ्चावश्यायः, हरतनुर्महिका-हिमम् ॥ ८५ ॥ पदार्थान्वयः-जे-जो, उ-फिर, बायरा-बादर, पज्जत्ता-पर्याप्त हैं, ते-वे, पंचहा-पांच प्रकार के, पकित्तिया-कथन किए गए हैं, सुद्धोदए-शुद्धोदक-मेघ का जल, य-और, उस्से-अवश्याय-ओस, हरतणू-प्रात:काल में तृणादि पर दिखाई देने वाले जल-बिन्दु, महिया-धुंध, हिमे-बर्फ। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४००] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं

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