________________
वर्णन करते हैं, यथा
एगविहमनाणत्ता, सुहमा तत्थ वियाहिया । सुहुमा सव्वलोगम्मि, लोगदेसे य बायरा ॥ १०० ॥
एकविधा अनानात्वाः, सूक्ष्मास्तत्र व्याख्याताः ।
सूक्ष्माः सर्वलोके, लोकदेशे च बादराः ॥ १०० ॥ पदार्थान्वयः-सुहुमा-सूक्ष्म वनस्पतिकाय के जीव, अनाणत्ता-नाना प्रकार के भेदों से रहित केवल, एगविहं-एक ही प्रकार के, वियाहिया-कथन किए गए हैं और, तत्थ-इन दोनों में, सुहुमा-सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव, सव्वलोगम्मि-सर्व लोक में व्याप्त हैं, य-और, बायरा-बादर-वनस्पति के जीव, लोगदेसे-लोक के एक देश में हैं।
मूलार्थ-सूक्ष्म वनस्पतिकाय के जीव नाना प्रकार के भेदों से रहित केवल एक ही प्रकार के हैं तथा सूक्ष्म जीव तो सर्व लोक में व्याप्त हैं और बादर अर्थात् स्थूल जीव लोक के विशेष भागों में स्थित हैं।
टीका-सूक्ष्म वनस्पतिकाय का अवान्तर भेद कोई नहीं है। वह केवल एक ही प्रकार का माना गया है तथा उसकी व्याप्ति सारे लोक में है और स्थूल वनस्पति की स्थिति लोक के एक देश में है। अब काल की अपेक्षा से वनस्पतिकाय का वर्णन करते हैं
संतइं पप्प णाईया, अपज्जवसियावि य । ठिई पडुच्च साईया, सपज्जवसियावि.य ॥ १०१ ॥ सन्ततिं प्राप्यानादिकाः, अपर्यवसिता अपि च ।
स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः, सपर्यवसिता अपि च ॥ १०१ ॥ पदार्थान्वयः-संतई-संतति की, पप्प-अपेक्षा से, अणाईया-अनादि, य-और, अपज्जवसिया-अपर्यवसित, अवि-भी है, ठिई-स्थिति की, पडुच्च-अपेक्षा से, साईया-सादि, य-और, सपज्जवसियावि-सपर्यवसित भी है। __मूलार्थ-संतति अर्थात् प्रवाह की अपेक्षा से वनस्पतिकाय अनादि-अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त माने गए हैं।
टीका-यदि प्रवाह की ओर दृष्टि डालें तब तो वनस्पतिकाय आदि और अन्त दोनों से रहित है, अर्थात् न तो उसकी आदि उपलब्ध होती है न उसका अन्त ही दृष्टिगोचर होता है, परन्तु जब इसकी स्थिति की ओर ध्यान करें तब इसकी आदि और अन्त दोनों ही मानने पड़ते हैं, इसलिए दृष्टि-भेद से वनस्पतिकाय में अनादि-अनन्तता और सादि-सान्तता दोनों ही स्वीकार किए गए हैं। अब इसकी स्थिति का वर्णन करते हैं, यथा
दस चेव सहस्साइं, वासाणुक्कोसिया भवे ! वणस्सईणं आउं तु, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं ॥१०२ ॥
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ४०८] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं