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वनस्पति कहते हैं।
२. प्रत्येक-जिसके प्रत्येक शरीर में प्रत्येक जीव निवास करे वह प्रत्येक-वनस्पति कहलाती है। अब प्रथम प्रत्येक-नामक वनस्पति का वर्णन करते हैं
पत्तेगसरीरा उ, गहा ते पकित्तिया । रुक्खा गुच्छा य गुम्मा य, लया वल्ली तणा तहा ॥ ९४ ॥
प्रत्येक-शरीरास्तु, अनेकधा ते प्रकीर्तिताः ।
वृक्षा गुच्छाश्च गुल्माश्च, लता वल्ली तृणानि तथा ॥ ९४ ॥ पदार्थान्वयः-पत्तेगसरीरा-प्रत्येक शरीर वाली वनस्पति, उ-फिर, णेगहा-अनेक प्रकार की, ते-वह, पकित्तिया-कही गई है, यथा-रुक्खा-वृक्ष, य-और, गुच्छा-गुच्छे, य-यथा, गुम्मा-गुल्म, लया-लता, वल्ली-वल्ली, तहा-तथा, तणा-तृण। ___ मूलार्थ-प्रत्येक शरीर वाली वनस्पति अनेक प्रकार की कही गई है, यथा-वृक्ष, गुच्छे, गुल्म, लता, वल्ली और तृण आदि।
टीका-प्रत्येक शरीर उस वनस्पति को कहते हैं कि जिसके शरीर में एक-एक ही जीव हो, अर्थात्-जैसे गुड़ आदि पर चिपके हुए तिलों का समुदाय होता है तद्वत् अनेक शरीरों का समूह रूप जो पिंड होता है उसे प्रत्येक-शरीरी-वनस्पति कहते हैं, जैसे गज्जक या तिल पपड़ी आदि।
यह प्रत्येक-वनस्पति अनेक प्रकार की होती है, परन्तु संक्षेप से इसके १२ भेद कहे गए हैं। जिनमें से ६ तो इस गाथा में कहे गए हैं और ६ अगली गाथा में बताए जाएंगे। १. वृक्ष-आम्रादि, २. गच्छ-वन्ताकी आदि गच्छे. ३. गल्म-नवमल्लिका आदि. ४. लता-चम्पक आदि लताएं. ५. वल्ली -करेला, ककड़ी आदि की बेलें, ६. तुण-दूर्वा आदि घास। इन वृक्षादि प्रत्येक-शरीर में एक-एक जीव रहता है, यथा तिलों के बने हए मोदक में भिन्न-भिन्न तिल रहते हैं और प्रत्येक तिल में भिन्न-भिन्न जीव रहता है, परन्तु है वह तिलों का समूहरूप ही, उसी प्रकार यहां भी समझ लेना चाहिए। अब शेष भेदों का वर्णन करते हैं
वलयाः पव्वगा कुहणा, जलरुहा ओसहीतिणा । हरियकाया उ बोधव्वा, पत्तेगाइ वियाहिया ॥ ९५ ॥
वलयाः पर्वजाः कुहणाः, जलरुहा औषधितृणानि ।
हरितकायास्तु बौद्धव्याः, प्रत्येका इति व्याख्याताः ॥ ९५ ॥ पदार्थान्वयः-वलया-नारिकेलादि, पव्वगा-पर्व से उत्पन्न होने वाले ईख आदि, कुहणा-भूमि-विस्फोटक-भूमि में से निकलने वाले खुब आदि, जलरुहा-कमल आदि, ओसहीतिणा-औषधि-तृण-शालि आदि धान्य, हरियकाया-हरितकाय आदि और भी, बोधव्वा-जान लेना, पत्तेगा-प्रत्येक-शरीरी वनस्पति, इ-इस प्रकार से, वियाहिया-कही गई है।
मूलार्थ-वलय, पर्वज, कुहुण, जलरुह, औषधितृण और हरितकाय इत्यादि भेद प्रत्येक
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ४०५] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं