Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 412
________________ के बाद और असंख्यात के भीतर किसी भी समय में वह स्थिति पूरी हो सकती है। अब इसके अन्तर-मान का वर्णन करते हैं, यथा अणंतकालमक्कोसं, अंतोमहत्तं जहन्नयं । विजढम्मि सए काए, आउजीवाण अंतरं ॥ ९० ॥ अनन्तकालमुत्कृष्टम्, अन्तर्मुहूर्तं जघन्यकम् । वित्यक्ते स्वके काये, अब्जीवानामन्तरम् ॥ ९० ॥ पदार्थान्वयः-सए काए-स्वकाय के, विजढम्मि-छोड़ने पर, जहन्नयं-जघन्य, अन्तोमुहुत्तंअन्तर्मुहूर्त, उक्कोसं-उत्कृष्ट, अणंतकालं-अनन्तकाल, आउजीवाण-अप्काय के जीवों का, अंतरंअन्तर-काल कथन किया गया है। मूलार्थ-स्व-काय के छोड़ने का (फिर वहां आने तक) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट अनन्तकाल-पर्यन्त अप्काय के जीवों का अन्तर-काल कथन किया गया है। टीका-यदि अप्काय का जीव अप्काय को छोड़कर किसी अन्य काय में चला जाए और वहां से च्यव कर यदि फिर वह अप्काय में ही लौट कर आए तो उसको कम से कम और अधिक से अधिक कितना समय लगता है? इस प्रश्न के उत्तर में शास्त्रकार कहते हैं कि उसके लिए न्यून से न्यून अन्तर्मुहूर्त और अधिक से अधिक अमन्तकाल का समय अपेक्षित है। सारांश यह है कि अप्काय को छोड़कर फिर वही जीव यदि अप्काय में ही आए तो कम से कम अन्तर्मुहूर्त में और अधिक से अधिक अनन्तकाल में वापिस आ सकता है। इसका अभिप्राय यह है कि वनस्पतिकाय की उत्कृष्ट काय-स्थिति अनन्तकाल की मानी गई है, इसलिए अप्काय को छोड़कर वनस्पतिकाय में गया हुआ जीव अनन्त काल के पश्चात् ही अप्काय में वापिस आ सकता है, अतः इसका उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल का और जघन्य अन्तर्मुहूर्त का प्रतिपादन किया गया है। अप्काय की यह काल-सापेक्ष्य सादि-सान्तता प्रतिपादन की गई है। इसके अतिरिक्त अन्य सब कुछ पृथिवीकाय की भांति ही जान लेना चाहिए। अब इनका भाव-सापेक्ष्य वर्णन करते हैं, यथा एएसिं वण्णओ चेव, गंधओ रस फासओ । संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥ ९१ ॥ एतेषां वर्णतश्चैव, गन्धतो रसस्पर्शतः । संस्थानादेशतो वापि, विधानानि सहस्रशः ॥ ९१ ॥ पदार्थान्वयः-एएसिं-इन अप्काय के जीवों के, वण्णओ-वर्ण से, च-पुनः, गंधओ-गन्ध से, रसफासओ-रस और स्पर्श से, वा-अथवा, संठाणादेसओ-संस्थान के आदेश से, सहस्ससो-हजारों, विहाणाई-भेद हो जाते हैं। ___मूलार्थ-अप्काय के जीवों के-वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान के आदेश से तारतम्य को लेकर हजारों भेद हो जाते हैं। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४०३] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं

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