Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 413
________________ टीका-अप्काय के जीवों की व्याख्या वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से असंख्य प्रकार से की जा सकती है, तात्पर्य यह है कि वर्ण, गन्ध, रसादि के तारतम्य को लेकर इनके असंख्य और अनन्त भेद किए जा सकते हैं, परन्तु यहां पर तो इनके स्थूल भेदों का प्रदर्शन करना ही अभिप्रेत है। - वनस्पतिकाय निरूपण अब क्रम-प्राप्त वनस्पतिकाय का निरूपण करते हैं दुविहा वणस्सई-जीवा, सुहुमा बायरा तहा । पज्जत्तमपज्जत्ता, एवमेव दुहा पुणो ॥ ९२ ॥ द्विविधा वनस्पतिजीवाः, सूक्ष्मा बादरास्तथा । पर्याप्ता अपर्याप्ताः, एवमेते द्विधा पुनः ॥ ९२ ॥ पदार्थान्वयः-वणस्सईजीवा-वनस्पतिकाय के जीव, दुविहा-दो प्रकार के हैं, सुहुमा-सूक्ष्म, तहा-तथा, बायरा-बादर, एवमेव-इसी प्रकार, पुणो-फिर, पज्जत्तं-पर्याप्त, और अपज्जत्ता-अपर्याप्त, ये, दुहा-दो भेद प्रत्येक के जानने चाहिएं। ___मूलार्थ-वनस्पतिकाय जीव भी सूक्ष्म और बादर भेद से दो प्रकार के हैं तथा उनके भी पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो भेद होते हैं। ____टीका-वनस्पतिकाय के भी-सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त, ये चार भेद हैं। यथा १. सूक्ष्म वनस्पतिकाय और २. बादर वनस्पतिकाय, इस प्रकार दो भेद हुए। फिर इनके-(क) सूक्ष्म-पर्याप्त-वनस्पतिकाय और (ख) सूक्ष्म-अपर्याप्त-वनस्पतिकाय (ग) बादर-पर्याप्त-वनस्पतिकाय और (घ) बादर-अपर्याप्त-वनस्पतिकाय। इस प्रकार से चार भेद वनस्पतिकाय के हो जाते हैं। अब फिर इसी विषय में कहते हैं बायरा जे उ पज्जत्ता, दुविहा ते वियाहिया । साहारणसरीरा य, पत्तेगा य तहेव य ॥ ९३ ॥ बादरा ये तु पर्याप्ताः, द्विविधास्ते व्याख्याताः । साधारणशरीराश्च, प्रत्येकाश्च तथैव च ॥ ९३ ॥ पदार्थान्वयः-जे-जो, बायरा-बादर, पज्जत्ता-पर्याप्त हैं, ते-वे, दुविहा-दो प्रकार के, वियाहिया-कथन किए गए हैं, साहारणसरीरा-साधारण शरीर, तहेव-उसी प्रकार, पत्तेगा-प्रत्येक शरीर, य-य-ये दोनों पादपूर्ति के लिए प्रयुक्त हैं। मूलार्थ-जो जीव पर्याप्त-बादर हैं वे दो प्रकार के कथन किए गए हैं, यथा-साधारण-शरीर और प्रत्येक-शरीर। टीका-बादर-पर्याप्त-वनस्पतिकाय के साधारण और प्रत्येक ऐसे दो भेद कथन किए गए हैं, अर्थात् एक साधारण शरीर वाली वनस्पति और दूसरी प्रत्येक शरीर वाली वनस्पति होती है। १. साधारण-जिस वनस्पति-काय के एक ही शरीर में अनन्त जीवों का निवास हो उसे साधारण उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ४०४] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं

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