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योज़नस्य तु यस्तत्र, क्रोश उपरिवर्ती भवेत् ।
तस्य क्रोशस्य षड्भागे, सिद्धानामवगाहना भवेत् ॥ ६२ ॥ पदार्थान्वयः-जोयणस्स-योजन के, जो-जो, तत्थ-ईषत्-प्राग्भार के, उवरिमो-ऊपर का, कोसो-कोस, भवे-है, तस्स-उस, कोसस्स-कोस के, छब्भाए-छठे भाग में, सिद्धाण-सिद्धों की, ओगाहणा-अवगाहना, भवे-होती है।
मूलार्थ-ईषत्-प्राग्भार-पृथ्वी से एक योजन के ऊपर के कोस के छठे भाग के प्रमाण में सिद्धों की अवगाहना प्रतिपादन की गई है।
टीका-ईषत्-प्राग्भारा पृथिवी के ऊपर जिस एक योजन के अन्तर में लोकान्त का प्रतिपादन किया गया है, उस योजन का जो ऊपर का कोस है उस कोस के छठे भाग में सिद्धों की अवगाहना स्वीकार की गई है।
इसका स्फुट भावार्थ यह है कि, २००० धनुष का एक कोस होता है, तथा ३३३ धनुष और ३२ अंगुल-प्रमाण क्षेत्र में सिद्धों की अवगाहना कथन की गई है, अर्थात् उत्कृष्ट रूप से इतने आकाश-प्रदेश में सिद्धों की स्थिति कही गई है।
और 'तत्थ-तत्र' यहां पर 'तस्य' के स्थान में सुप् का व्यत्यय किया गया है। अब फिर इसी सम्बन्ध में अर्थात् सिद्धों के विषय में कहते हैं
तत्थ सिद्धा महाभागा, लोगग्गम्मि पइट्ठिया । भवप्पवंच उम्मुक्का, सिद्धिं वरगड़ गया ॥ ६३ ॥ तत्र सिद्धा महाभागाः, लोकाग्रे प्रतिष्ठिताः ।
भवप्रपञ्चोन्मुक्ताः, सिद्धिं वरगतिं गताः ॥ ६३ ॥ __पदार्थान्वयः-तत्थ-उस स्थान पर, सिद्धा-सिद्ध, महाभागा-महान् भाग्य वाले, लोगग्गम्मि-लोक के अग्र भाग पर, पइट्ठिया-प्रतिष्ठित हुए, भवप्पवंच-जन्मादि के प्रपंच से, उम्मुक्का-उन्मुक्त हुए, सिद्धि-सिद्धिरूप, वरगइं-परम श्रेष्ठ गति को, गया-प्राप्त हुए।
मूलार्थ-सर्वप्रधान सिद्धगति को प्राप्त होने वाले महाभाग्यशाली सिद्ध जीव संसार-चक्र के प्रपंच से उन्मुक्त होकर वहां लोक के अग्र भाग में प्रतिष्ठित हैं।
टीका-मोक्ष-गति के अतिरिक्त अन्य जितनी भी गतियां हैं वे सब सावधिक एवं विनाशशील हैं, परन्तु मोक्षगति की न तो कोई अवधि है और न ही उसका विनाश है, अत: वह शाश्वत है। और इसी कारण से मोक्षगति के सिवाय अन्य गतियों को प्राप्त होने वाले जीव चलस्वभावी कहे गए हैं और मुक्ति के जीव अचलस्वभावी हैं। इसके अतिरिक्त उनके स्वरूप और स्वभाव के अनुरूप ही उनको-अचल, अजर, अमर, बुद्ध, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी आदि संज्ञाओं से अभिहित किया जाता है। अब सिद्धगति को प्राप्त हुए जीवों की अवगाहना के विषय में कहते हैं
उस्सेहो जस्स जो होइ, भवम्मि चरिमम्मि उ । तिभागहीणो तत्तो य, सिद्धाणोगाहणा भवे ॥ ६४॥
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३८९] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं