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टीका-इस गाथा के द्वारा पूर्वोक्त प्रश्नों का उत्तर दिया गया है। कर्म-निर्मुक्त जीव, ऊर्ध्वगमन करता हुआ लोक के अन्त तक पहुंचकर रुक जाता है, कारण यह है कि उसकी गति धर्मास्तिकाय के आश्रित है और धर्मास्तिकाय की सत्ता लोक से आगे नहीं, इसलिए मुक्त जीव के गमन का लोक के अन्त में जाकर निरोध हो जाता है। तात्पर्य यह है कि मुक्तात्मा की ऊर्ध्वगति अलोक में प्रतिहत हो जाती है-रुक जाती है, यह प्रथम प्रश्न का उत्तर है। इस प्रकार धर्मास्तिकाय के द्वारा ऊर्ध्वगति में प्रवृत्त हुई मुक्तात्मा लोक के अग्र भाग में जाकर प्रतिष्ठित हो जाती है-ठहर जाती है, यह दूसरे प्रश्न का उत्तर है तथा मनुष्य के अतिरिक्त कोई भी जीव कर्म-बन्धन को तोड़कर मोक्ष को प्राप्त नहीं हो सकता, अर्थात् सिद्धगति की प्राप्ति का अधिकार एकमात्र मानवभव में आए हुए जीवात्मा को ही है अन्य योनि के जीव को नहीं, इसलिए सिद्धगति को प्राप्त करने वाली जीवात्मा इस शरीर का परित्याग करके मनुष्य-लोक से ऊर्ध्वगमन करती हुई लोक के अग्र भाग में सिद्धगति को प्राप्त हो जाती है, यह तीसरे और चौथे प्रश्न का समाधान है। यहां पर इतना स्मरण रहे कि कर्मनिर्मुक्त जीवात्मा की गति ऊर्ध्वगति के बिना अन्य किसी गति की ओर नहीं होती, अतः ऊर्ध्वगति करती हुई वह लोक के अन्त भाग में जाकर प्रतिष्ठित हो जाती है।
लोकाग्र ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के ऊपर है, सो शास्त्रकार अब प्राग्भारा पृथ्वी के संस्थान और वर्णादि के विषय में कहते हैं
बारसहिं जोयणेहिं, सव्वट्ठस्सुवरिं भवे । ईसिपब्भारनामा उ, पुढवी छत्तसंठिया ॥ ५७ ॥ द्वादशभिर्यो जनैः, सर्वार्थस्योपरि भवेत् ।
ईषत्प्राग्भारनाम्नी तु, पृथिवी छत्रसंस्थिता ॥ ५७ ॥ पदार्थान्वयः-बारसहि-द्वादश, जोयणेहि-योजन-प्रमाण, सव्वट्ठस्सुवरिं-सर्वार्थसिद्ध विमान के ऊपर, भवे-है, ईसिपब्भारनामा-ईषत्-प्राग्भार-नामा, पुढवी-पृथ्वी, छत्त-छत्र के आकार में, संठिया-अवस्थित है, उ-प्राग्वत्। ___ मूलार्थ-सर्वार्थसिद्ध विमान से बारह योजन ऊपर ईषत् प्राग्भार नाम की पृथ्वी छत्र के आकार में अवस्थित है।
टीका-यद्यपि यह पृथिवी सिद्धालय के नाम से ही प्रसिद्ध है, तथापि इसका ईषत्-प्राग्भारा भी शास्त्रविहित नाम है। तथा उत्तान किए हुए छत्र के आकार में अवस्थित है अर्थात् ऊपर को उलटे ताने हुए छत्र का जैसा आकार होता है उसके समान आकार वाली वह पृथिवी है। सारांश यह है कि इस लोक में सारी आठ पृथिवियां हैं जिनमें सात तो अधोलोक में हैं और आठवीं-पृथिवी ऊर्ध्वलोक में है जो कि ईषत्-प्राग्भारा या सिद्धालय के नाम से शास्त्रों में विख्यात है। अब फिर प्रस्तुत विषय में ही कहते हैं, यथा
पणयालसयसहस्सा, जोयणाणं तु आयया । तावइयं चेव वित्थिण्णा, तिगुणो तस्सेव परिरओ ॥५८ ॥ .
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३८६] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं