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विसप्पे सव्वओ-धारे, बहुपाणिविणासणे । . नत्थि जोइसमे सत्थे, तम्हा जोइं न दीवए ॥ १२ ॥ विसर्पत् सर्वतोधारं, बहुप्राणिविनाशनम् ।
नास्ति ज्योतिःसमं शस्त्रं, तस्माज्ज्योतिर्न दीपयेत् ॥ १२ ॥ पदार्थान्वयः-विसप्पे-फैलती हुई, सव्वओ-सर्व प्रकार से सर्व दिशाओं में, धारे-शस्त्रधाराएं, बहुपाणिविणासणे-अनेकानेक प्राणियों का विनाशक, नत्थि-नहीं है, जोइसमे-ज्योति-अग्नि के समान, सत्थे-शस्त्र, तम्हा-इसलिए, जोइं-अग्नि को, न दीवए-प्रज्वलित न करे।
मूलार्थ-सर्व प्रकार से अथवा सर्व दिशाओं में जिसकी धाराएं अर्थात् ज्वालाएं फैली हुई हैं और जो अनेकानेक प्राणियों का विघात करने वाला है ऐसा अग्नि के समान दूसरा कोई शस्त्र नहीं है, इसलिए साधु अग्नि को कभी प्रज्वलित न करे।
टीका-शास्त्रकार कहते हैं कि अग्नि के समान दूसरा कोई शस्त्र नहीं है, क्योंकि अग्नि थोड़े में ही अधिक विस्तार को प्राप्त कर जाती है। इसकी धाराएं अर्थात् ज्वालाएं सर्व दिशाओं में फैल कर असंख्य प्राणियों का विनाश कर डालती हैं, अतः विचारशील साधु कभी भी अग्नि को प्रदीप्त न करे।
प्रस्तुत गाथा में साधु को अग्नि जलाने का निषेध किया गया है जो कि उसके संयम की रक्षा के लिए नितान्त आवश्यक है। .
निष्कर्ष-व्यवहार में उपयोगरूप से अग्नि के दो कार्य प्रायः देखे जाते हैं-१. अन्नादि का पक़ाना और २. शीत आदि की निवृत्ति करना। परन्तु इन दोनों ही कार्यों के लिए प्रज्वलित की गई अग्नि आस-पास के असंख्य क्षुद्र प्राणियों को भस्म-सात् कर देता है, इस प्रकार अग्नि को जलाने वाला अनेक क्षुद्र जीवों की हिंसा में कारण बनता है। इस आशय को लेकर ही अहिंसा-वृत्ति-प्रधान साधु के लिए शास्त्रकारों ने अग्नि जलाने का निषेध किया है।
यदि कोई यह कहे कि क्रय-विक्रय आदि के करने में तो किसी भी जीव का वध नहीं होता, अतः यदि साधु क्रय-विक्रय आदि के द्वारा अपना निर्वाह कर ले तो इसमें क्या आपत्ति है?
इस प्रश्न का उत्तर देते हुए शास्त्रकार अब क्रय-विक्रय आदि का भी निषेध करते हुए कहते हैं, यथा
हिरण्णं जायरूवं च, मणसावि न पत्थए । समलेठ्ठ-कंचणे भिक्खू, विरए कय-विक्कए ॥ १३ ॥ हिरण्यं जातरूपं च, मनसाऽपि न प्रार्थयेत् ।
समलोष्टकाञ्चनो भिक्षुः, विरतः क्रय-विक्रयात् ॥ १३ ॥ पदार्थान्वयः-हिरण्णं-सुवर्ण, च-और, जायरूवं-चांदी, च-अन्य पदार्थों के समुच्चय में है, मणसावि-मन से भी, न पत्थए-प्रार्थना न करे, समलेठुकंचणे-समान है पाषाण और कांचन जिसको ऐसा, भिक्खू-भिक्षु, विरए-निवृत्त, कय-विक्कए-क्रय-खरीदने और विक्रय-बेचने से।
मूलार्थ-क्रय-विक्रय (वस्तुओं के खरीदने और बेचने) से विरक्त और पाषाण तथा
आययत् ।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३५० ] अणगारज्झयणं णाम पंचतीसइमं अन्झयणं