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द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के नाम से विख्यात हैं। द्रव्य से जीव और अजीव द्रव्य इतने हैं, क्षेत्र से-जीव द्रव्य मात्र इतने क्षेत्र में स्थित है, काल से जीव द्रव्य की एतावन्मात्र काल-स्थिति है, और भाव से जीव-द्रव्य में एतावन्मात्र पर्याय परिवर्तित होते हैं।
इसी प्रकार से अजीव-द्रव्य के विषय में समझ लेना चाहिए। सारांश यह है कि प्रत्येक द्रव्य का इन चार प्रकारों से विभाग किया जाता है।
विषय-निरूपण की स्वल्पता को देखते हुए सर्व प्रथम अजीव-द्रव्य के विषय में कहते हैं, यथा
रूविणो चेव रूवी य, अजीवा दुविहा भवे । अरूवी दसहा वुत्ता, रूविणो य चउव्विहा ॥ ४ ॥ ... रूपिणश्चैवारूपिणश्च, अजीवा द्विविधा भवेयुः ।
अरूपिणो दशधोक्ताः, रूपिणश्च चतुर्विधाः ॥ ४ ॥ पदार्थान्वयः-अजीवा-अजीव-द्रव्य, दुविहा-दो प्रकार का, भवे-होता है, रूविणो-रूपी, च-और, अरूवी-अरूपी द्रव्य, दसहा-दश प्रकार से, वुत्ता-कहा गया है, य-तथा, रूविणो-रूपी द्रव्य, चउव्विहा-चार प्रकार का है, च-समुच्चय में और, एव-पादपूर्ति में है।
मूलार्थ-अजीव-द्रव्य के दो भेद कहे गए हैं, पहला रूपी और दूसरा अरूपी। उनमें भी अरूपी के दस और रूपी के चार भेद प्रतिपादित किए गए हैं। ___टीका-रूपी और अरूपी भेद से अजीव द्रव्य दो प्रकार का है। उनमें भी रूपी के चार और अरूपी के दस भेद हैं। जिसमें वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श हो, वह रूपी द्रव्य कहलाता है, तथा इन गुणों का जिसमें अभाव हो, उसे अरूपी द्रव्य कहते हैं। इसके अतिरिक्त रूपी को मूर्तिक और अरूपी को अमूर्तिक भी कहते हैं।
सारांश यह है कि अजीव-तत्त्व के मुख्य भेद तो दो हैं-रूपी और अरूपी, उनमें से अरूपी के दस और रूपी के चार भेद हैं।
• धम्मत्थिकाए तद्देसे, तप्पएसे य आहिए ।
अहम्मे तस्स देसे य, तप्पएसे य आहिए ॥ ५ ॥ आगासे तस्स देसे य, तप्पएसे य आहिए । अद्धासमए चेव, अरूवी दसहा भवे ॥ ६ ॥ धर्मास्तिकायस्तद्देशः, तत्प्रदेशश्चाख्यातः । अधर्मस्तस्य देशश्च, तत्प्रदेशश्चाख्यातः ॥ ५ ॥ आकाशस्तस्य देशश्च, तत्प्रदेशश्चाख्यातः ।
अद्धासमयश्चैव, अरूपिणो दशधा भवेयुः ॥ ६ ॥ पदार्थान्वयः-धम्मत्थिकाए-धर्मास्तिकाय, तद्देसे-धर्मास्तिकाय का देश, य-और, तप्पएसेधर्मास्तिकाय का प्रदेश, आहिए-कहा गया है, अहम्मे-अधर्मास्तिकाय, तस्स-उसका, देसे-देश,
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३५९] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं