________________
को जा सकते हैं, अधोलोक, मनुष्यलोक और तिर्यक्लोक-अढाई द्वीप और दो समुद्रों से भी मोक्ष को जाती हैं, एवं नदी, जलाशय और पर्वत आदि पर से भी मुक्त होती हैं।
___ तात्पर्य यह है कि अढाई द्वीप में भी किसी स्थान पर से मोक्षगमन में निषेध नहीं, किन्तु रागद्वेष का आत्यन्तिक- क्षय करने वाला जीव जहां कहीं भी हो वहां से मोक्ष में गमन कर सकता है, अतः वीतराग आत्मा के सिद्धगति को प्राप्त करने में कोई भी क्षेत्र प्रतिबन्धक नहीं है। __अब स्त्री, पुरुष और नपुंसक में से, एक समय में होने वाले सिद्धों की संख्या का वर्णन करते हैं, यथा
दस य नपुंसएसु, वीसं इत्थियासु य । पुरिसेसु य अट्ठसयं, समएणेगेण सिज्झई ॥ ५१ ॥ दश च नपुंसकेषु,. विंशतिः स्त्रीषु च ।
पुरुषेषु चाष्टाधिकशतं, समयेनैकेन सिध्यन्ति ॥ ५१ ॥ पदार्थान्वयः-दस-दस, नपुंसएसुं-नपुंसकों में, य-और, वीस-बीस, इत्थियासु-स्त्रियों में, य-तथा, अट्ठसयं-एक सौ आठ, पुरिसेसु-पुरुषों में, समएणेगेण-एक समय में, सिज्झई-सिद्ध होते हैं, य-उत्तर के समुच्चय में।
मूलार्थ-एक समय में दस नपुंसक-लिंगी, बीस स्त्री-लिंगी और एक सौ आठ पुरुष-लिंगी जीव सिद्धगति को प्राप्त होते हैं।
टीका-स्त्री, पुरुष और नपुंसक, इनमें से एक समय में कितनी-कितनी संख्या में जीव सिद्धगति को प्राप्त होते हैं? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि नपुंसक १०, स्त्री २० और पुरुष १०८ की संख्या में सिद्धपद को प्राप्त करते हैं। यहां पर पुरुष की अधिक संख्या उसकी विशिष्टता से है, अर्थात् पुरुष में इनकी अपेक्षा अधिक योग्यता है, अत: वे अधिक संख्या में मुक्त होते हैं।
पुनः इसी विषय में कहते हैं- चत्तारि य गिहलिंगे, अन्नलिंगे दसेव य ।
सलिंगेण अट्ठसयं, समएणेगेण सिज्झई ॥ ५२ ॥ .... चत्वारश्च गृहलिगे, अन्यलिगे दशैव च ।
स्वलिङ्गेनाष्टाधिकशतं, समयेनैकेन सिध्यन्ति ॥ ५२ ॥ पदार्थान्वयः-चत्तारि-चार, गिहलिंगे-गृहस्थलिंग में, य-और, अन्नलिंगे-अन्यलिंग में, दसेव-दश ही, य-तथा, सलिंगेण-स्वलिंग में, अट्ठसयं-एक सौ आठ, समएणेगेण-एक समय में, सिज्झई-सिद्ध होते हैं।
मूलार्थ-गृहस्थलिंग में चार, अन्य लिंग में दश और स्वलिंग से एक सौ आठ, एक समय में सिद्धगति को प्राप्त होते हैं। टीका-एक समय में गृहस्थलिंग से ४, अन्यलिंग से १० और स्वलिंग से १०८ सिद्ध होते हैं।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३८३] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं