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उल्लिखित क्रम के अनुसार यद्यपि संसारी जीवों का वर्णन पहले होना चाहिए था, तथापि संसारी जीवों की अपेक्षा सिद्धों का विषय स्वल्प होने से "सूचीकटाह-न्याय" के अनुसार प्रथम सिद्धों के भेदों का ही वर्णन किया जा रहा है।
सूत्र में 'तं' तान् के स्थान में और 'सुण' 'श्रृणत' के स्थान पर आर्ष प्रयोग हुआ है। अब उपाधिभेद से सिद्धों के भेदों का वर्णन करते हैं
इत्थी पुरिससिद्धा य, तहेव य नपुंसगा । सलिंगे अन्नलिंगे य, गिहिलिंगे तहेव य ॥ ४९ ॥ स्त्री पुरुषसिद्धाश्च, तथैव च नपुंसकाः ।
स्वलिङ्गा अन्यलिङ्गाश्च, गृहिलिङ्गास्तथैव च ॥ ४९ ॥ पदार्थान्वयः-इत्थी-स्त्रीलिंग-सिद्ध, य-और, पुरिससिद्धा-पुरुषलिंग-सिद्ध, तहेव-उसी प्रकार, य-फिर, नपुंसगा-नपुंसकलिंग-सिद्ध, सलिंगे-स्वलिंग में सिद्ध, य-और, अन्नलिंगे-अन्यलिंग में सिद्ध, तहेव-उसी प्रकार, गिहिलिंगे-गृहस्थलिंग में सिद्ध होता है, य-च शब्द से अन्य तीर्थ-सिद्धादि का ग्रहण कर लेना चाहिए।
मूलार्थ-स्त्रीलिंग-सिद्ध, पुरुषलिंग-सिद्ध, नपुंसकलिंग-सिद्ध, स्वलिंग-सिद्ध, अन्यलिंग-सिद्ध और गृहस्थलिंग-सिद्ध तथा चकार से तीर्थादि-सिद्ध, ये सिद्धों के भेद हैं।
टीका-प्रस्तुत गाथा में सिद्धों के उपाधिकृत भेदों का दिग्दर्शन कराया गया है। जिस जीवात्मा के ज्ञानावरणीयादि आठ प्रकार के कर्म क्षय हो गए हों, तथा केवलज्ञान को प्राप्त करके वह सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और अनन्त बल-वीर्य का धारक हो गया हो वही सिद्ध-पद को प्राप्त होता है। इस प्रकार की आत्मा चाहे स्त्रीलिंग में हो या पुरुषलिंग में हो, तथा रजोहरण और मखवस्त्रिका आदि स्वलिंग में हो. अथवा अन्य शाक्यादि के लिंग में हो और चाहे गृहस्थ के लिंग में हो, तात्पर्य यह है कि जिस आत्मा ने कर्मों का क्षय करके केवल-ज्ञान को प्राप्त कर लिया है, वह वीतराग आत्मा चाहे किसी भी वेष में क्यों न हो, उसका सिद्धपद अर्थात् मोक्षपद को प्राप्त होना निःसन्देह है। क्योंकि बाह्य लिंग अर्थात् वेश मोक्ष का प्रतिबन्धक नहीं है, किन्तु मोक्ष का प्रतिबन्धक अन्दर का राग और द्वेष ही है, इसलिए जो आत्मा. राग और द्वेष से रहित समभाव-भावित हो गया है उसकी सिद्धगति में अणुमात्र भी सन्देह नहीं।
इसके विपरीत जिस आत्मा में राग और द्वेष विद्यमान हैं उसका बाह्य वेष कितना ही उज्ज्वल क्यों न हो, मोक्ष का दरवाजा तो उसके लिए बन्द ही है। इसलिए किसी बाह्य लिंगविशेष का मोक्ष के साथ कोई सम्बन्ध नहीं।
प्रस्तुत गाथा से शास्त्रकारों की निष्पक्षता का भी खूब परिचय मिलता है, कारण कि उन्होंने किसी भी वेष वाले को मोक्ष का अनधिकारी नहीं बताया, किंतु वीतरागता को ही मोक्ष का सर्वोपरि साधन कथन किया है, सो वीतरागता का सम्बन्ध केवल आत्मा से है और आत्मा सब की समान हैं, अतः मोक्षाभिलाषी आत्मा को सम्यग् दर्शन, ज्ञान और चारित्र से विभूषित होते हुए वीतरागता का सम्पादन करना चाहिए।
‘उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३८१] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं