________________
और गलनता ये दोनों धर्म विद्यमान हों उसको पुद्गल कहते हैं। अब संस्थान के विषय में कहते हैं
संठाणओ परिणया जे उ, पंचहा ते पकित्तिया । परिमंडला य वट्टा य, तसा चउरंसमायया ॥ २१ ॥ संस्थानतः परिणता ये तु, पञ्चधा ते प्रकीर्तिताः ।
परिमण्डलाश्च वृत्ताश्च, व्यस्त्राश्चतुरस्रा आयताः ॥ २१ ॥ पदार्थान्वयः-संठाणओ परिणया-संस्थान रूप में परिणत, जे-जो पुद्गल हैं, ते-वे, पंचहा-पांच प्रकार के, पकित्तिया-कहे गए हैं, परिमंडला-परिमंडलाकार, य-और, वट्टा-वृत्ताकार, तसा-त्रिकोणाकार, चउरंसं-चतुष्कोण, य-और, आयया-दीर्घ, तु-प्राग्वत् ।
मूलार्थ-संस्थान रूप में परिणत होने वाले पुद्गलों के पांच भेद कथन किए गए हैं, यथा-परिमंडल, वृत्त, त्रिकोण, चतुष्कोण और दीर्घ।
टीका-संस्थान का अर्थ है आकृति या आकारविशेष। तात्पर्य यह है कि जिस आकार में स्कन्ध और परमाणु रहते हैं उस आकारविशेष को संस्थान कहते हैं। उस संस्थान या आकृतिविशेष के निम्नलिखित पांच भेद कथन किए गए हैं
१. परिमंडल-चूड़ी के समान गोल आकार को परिमंडल कहते हैं। २. वृत्त-गेंद की तरह वर्तुलाकार अर्थात् गोल आकृति को वृत्त कहते हैं। ३. त्र्यस्त्र-इसका अर्थ है त्रिकोणाकार। ४. चतुरस्त्र-चार कोनों वाला अर्थात् चौकी के समान आकृति वाला। ५. आयत-लम्बा, रज्जू के सदृश आकार वाला।
इस प्रकार संस्थान की अपेक्षा से पुद्गल-द्रव्य के पांच भेद होते हैं, तात्पर्य यह है कि इन्हीं संस्थानों के रूप में पुद्गल-द्रव्य का अवस्थान है। . अब इन पूर्वोक्त गुणों के परस्पर सम्बन्ध के विषय में कहते हैं
वण्णओ जे भवे किण्हे, भइए से उ गंधओ । रसओं फासओ चेव, भइए संठाणओवि य ॥ २२ ॥ . वर्णतो यो भवेत्कृष्णः, भाज्यः स तु गन्धतः ।
रसतः स्पर्शतश्चैव, भाज्यः संस्थानतोऽपि च ॥ २२ ॥ पदार्थान्वयः-वण्णओ-वर्ण से, जे-जो, किण्हे-कृष्ण, भवे-होवे, से-वह, उ-फिर, गंधओ-गन्ध से, भइए-भाज्य है, रसओ-रस से, च-और, फासओ-स्पर्श से, च-तथा, संठाणओवि-संस्थान से भी, भइए-भाज्य है, एव-निश्चयार्थक है।
- मूलार्थ-जो पुद्गल कृष्ण वर्ण वाला है वह गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान से भी भजनीय होता है, अर्थात् गन्धादि से भी युक्त होता है।
टीका-कृष्ण वर्ण वाले पुद्गल में-२ गंध, ५ रस, ८ स्पर्श और ५ संस्थान, इस प्रकार बीस गुणों उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३६९] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं