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जीवा चेव अजीवा य, एस लोए वियाहिए । अजीवदेसमागासे, अलोए से वियाहिए ॥ २ ॥ जीवाश्चैवाजीवाश्च, एष लोको व्याख्यातः 1 अजीवदेश आकाशः, अलोकः स व्याख्यातः ॥ २ ॥
पदार्थान्वयः - जीवा - जीव, च- और, अजीवा - अजीव रूप, एस - यह, लोए-लोक, वियाहिए- कहा गया है, अजीवदेसं - अजीव का देश, आगासे - केवल आकाशरूप से - वह, अलोए - अलोक, वियाहिए - प्रतिपादन किया गया है, य-पुनः अर्थ में, एव - अवधारण अर्थ में है ।
मूलार्थ - जीव और अजीव रूप से लोक दो प्रकार का है और केवल अजीव का देशमात्र जो आकाश है ( जहां पर आकाश द्रव्य के अतिरिक्त और कोई द्रव्य नहीं है ) उसको तीर्थंकरों ने अलोक कहा है।
टीका - इस गाथा में जीव और अजीव के लक्षण वर्णन किए गए हैं। चेतन को जीब और अचेतन को अजीव कहते हैं, अर्थात् जिसमें चैतन्य लक्षण हो, वह जीव है और चेतना से रहित को अजीव कहा जाता है। ये दोनों तत्त्व जहां निवास कर रहे हैं, उसे तीर्थंकरों ने लोक कहा है। अजीव के एकदेश को जहां आकाशमात्र ही विद्यमान है, अर्थात् आकाश के सिवाय अन्य किसी भी वस्तु का अस्तित्व नहीं है, उसे अलोक कहते हैं।
तात्पर्य यह है कि लोक में तो जीव और धर्माधर्मादि सभी अजीव द्रव्यों का अस्तित्व रहता है और अलोक में केवल आकाशमात्र का ही अस्तित्व है। अजीव द्रव्य का एकदेश आकाश है, अर्थात् धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल, ये पांच भेद अजीव द्रव्य के हैं। इनमें से केवल आकाश ही जहां पर विद्यमान हो वह अलोक है। इस प्रकार यह लोकालोक के विभाग का वर्णन तीर्थंकरों के द्वारा किया गया है।
अब जीव और अजीव पदार्थ के विभाग के विषय में कहते हैं, यथादव्वओ खेत्तओ चेव, कालओ भावओ तहा । परूवणा तेसिं भवे, जीवाणमजीवाण य ॥ ३ ॥
द्रव्यतः क्षेत्रतश्चैव, कालतो भावतस्तथा । प्ररूपणा तेषां भवेत्, जीवानामजीवानां च ॥ ३ ॥
पदार्थान्वयः - दव्वओ - द्रव्य से, खेत्तओ - क्षेत्र से, च-और, कालओ - काल से, तहा— तथा, भावओ-भाव से, परूवणा - प्ररूपणा, तेसिं-उन, जीवाणं- जीवों की, य-और, अजीवाण-अजीवों की, भवे - होती है।
मूलार्थ - जीव और अजीव द्रव्य की प्ररूपणा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, इन चार प्रकारों से होती है।
टीका - प्रस्तुत गाथा में जीव और अजीव द्रव्य के निरूपण के चार प्रकार बताए गए हैं। वे चारों
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३५८ ] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं